कोविड-19 महामारी को नियंत्रित करना ऐसी दुर्गम सार्वजनिक चुनौती हो गई है कि सरकारी घोषणाएं अक्सर चुनावी घोषणा पत्र की तरह लगने लगी हैं। मार्च में ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन विज्ञान के साथ चलने का वायदा कर रहे थे, लेकिन उन्होंने क्या किया? कुछ हफ्तों से वहां शीर्ष वैज्ञानिक 14 दिन के लॉकडाउन की वकालत कर रहे हैं, लेकिन बोरिस जॉनसन उनकी सलाह की अनदेखी करने में लगे हैं। वैज्ञानिकों का मानना है, एक ‘सर्किट ब्रेकर’ की जरूरत है, ताकि अस्पतालों पर अतिरिक्त बोझ न पड़े।
भारत में विभिन्न प्रकार के आकलन हैं। सितंबर के मध्य में इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के महानिदेशक बलराम भार्गव ने कहा था, ‘हमने कोरोना कर्व को इस तरह से संभाला है कि ...हमारे यहां बड़े चरम की स्थिति बिल्कुल नहीं है’। यह बयान आत्मविश्वास बढ़ाने के उद्देश्य से दिया गया हो सकता है, लेकिन यह जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास को भी दर्शाता है। जैसा कि हम नव वर्ष पर निजी रूप से कोई संकल्प लेते हैं और फिर बाद में उसे हल्के में लेने लगते हैं, ठीक इसी तरह से हमने शारीरिक दूरी बरतने संबंधी अपने संकल्प को भी हल्के से ले लिया है।
यूरोप और अमेरिका के ज्यादातर हिस्सों में एक बार फिर कोरोना संक्रमण में तेजी देखी जा रही है। अमेरिका में पिछले सप्ताह 5,00,000 नए मामले दर्ज हुए हैं। टेक्सास की सीमा के पार बसे मैक्सिको के एक शहर की मेयर अमेरिका से आने वालों पर अस्थाई प्रतिबंध लगाने पर विचार कर रही हैं। फिर भी यह विडंबना ही है कि ज्यादातर रिपोर्ट में कुछ तथ्यों का हवाला नहीं है। टेक्सास के अल पासो में अस्पताल पूरी तरह से भर गए हैं और मरीजों को वहां से एयरलिफ्ट करना पड़ रहा है। उधर, फ्रांस ने फिर लॉकडाउन लगा दिया है। इटली ने एक बार फिर सिनेमा हॉल, सभागारों और जिम को बंद करने के आदेश दे दिए हैं। यह हालत तब है, जब उत्तरी गोलार्द्ध में अभी तक कड़ाके की सर्दी की शुरुआत नहीं हुई है।
शारीरिक दूरी बरतने के प्रति उदासीनता असली अपराधी है। यूरोप में गर्मियों में बिना मास्क छुट्िटयां मनाते लोगों की तस्वीरें सबने देखी हैं। लॉन टेनिस खिलाड़ी नोवाक जोकोविच जून में बेलग्रेड के एक नाइट क्लब में मौज-मस्ती करते समूह का नेतृत्व कर रहे थे। यह वही इलाका है, जहां कोरोना की दूसरी लहर कहर ढा रही है।
लेकिन अब कोलकाता से लेकर बेंगलुरु तक के बाजारों से भीड़ की तस्वीरें आ रही हैं, जो आशंकाओं को जन्म दे रही हैं। यह भीड़ अत्यधिक संक्रामक साबित हो सकती है। जैसा कि अशोका यूनिवर्सिटी में महामारी विज्ञानी व प्रोफेसर गौतम मेनन बताते हैं, बंगाल में दुर्गा पूजा के दौरान बरती गई ढिलाई के नतीजे कुछ हफ्ते बाद सामने आएंगे, अस्पताल में दाखिले बढ़ेंगे और गंभीर मामलों में वृद्धि होगी। दिवाली के दौरान भी ऐसी ही स्थिति बनने की आशंका है। फिर भी, भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य जागरूकता बढ़ी है। हाथ धोने और मास्क पहनने के बारे में सब लोग जानते हैं। सरकार के संचार माध्यमों और दिशा-निर्देशों ने यह कामयाबी हासिल की है, लोग मास्क पहनते हैं, लेकिन मुश्किल यह है कि मुंह और नाक पर मास्क पहनने की जरूरत पर किसी ने जोर नहीं दिया है। जुगाड़-शैली में ज्यादातर लोग मुंह के नीचे या गर्दन के नीचे मास्क बांधे या लटकाए रह रहे हैं। अपरिहार्य फोन संदेशों पर भी लोगों को यह नहीं बताया गया है कि वातानुकूलित कार्यालय या घर में बंद रहना ज्यादा जोखिम भरा है और एक कमरे में सभी खिड़कियां खुली रखकर पंखे की हवा में रहने में कम जोखिम है। अभी भी एक पार्क में या छत पर दोस्तों से मिलने के बजाय कमरे में मिलना खतरनाक हो सकता है।