गड्ढा तो आखिर गड्ढा है। आप किसी गड्ढे को यूं ही नहीं ले सकते। गड्ढा देश की संस्कृति का अटूट हिस्सा है। जब से इस देश में सड़कें बनना शुरू हुईं, तब से गड्ढा प्रकाश में आ गया था। बगैर सड़क के भी गड्ढे होते हैं, पर वे किसी काम के नहीं होते। जब तक पक्की सड़क पर गड्ढा न हो, उसका होना न होना बराबर है। जब गड्ढा होता है हर कोई उसे अपने नजरिए से देखता और परिभाषित करता है। गड्ढे से ऋतु चक्र भी जुड़ा रहता है। यानी गड्ढे हर मौसम में हुआ करते हैं। गर्मी का गड्ढा, सर्दी का गड्ढा और बारिश का गड्ढा...। आप इसे ऐसे भी ले सकते हैं कि यदि सर्दी में गड्ढा एक फुट का होता है तो गर्मी में उसका आकार बढ़कर दो फुट हो जाता है। बारिश होते-होते वह गड्ढा सारी भौगोलिक सीमाएं लांघ कर अपने विराट स्वरूप को प्रदर्शित करने लगता है।
शहर की सड़क पर हुए गड्ढे को देखने, उस पर सोचने और उसे भुगतने के अपने-अपने तरीके हैं। एक विदेशी सैलानी के लिए हिन्दुस्तानी सड़क पर हुआ गड्ढा किसी पुरातात्विक अवशेष से कम नहीं होता। वह उसे देखकर निहाल हुआ जाता है और उसकी ऐतिहासिकता पर मर-मिटता है। उसे गड्ढा ऐतिहासिक इसलिए लगता है कि उसने अपने देश में बीच सड़क पर ऐसी जटिल संरचना कभी देखी नहीं होती है। वह नादान सड़क को शुद्ध सड़क ही मान रहा होता है। जब वह अपने देश लौटता है तो उसे ताजमहल, लाल किले, जलियांवाला बाग से ज्यादा यह ऐतिहासिक गड्ढा याद रहता है। इस अबूझ पहेली को मन ही मन बूझने की कोशिश करता है कि सड़क पर दो-तीन-चार वर्ग फुट आकार के ये गड्ढे आखिर बनते कैसे हैं! लेकिन उस गड्ढे की गहराई को एक ही आदमी बूझ सकता है। वह है, सड़क बनाने वाला ठेकेदार। गड्ढे पर उसका कॉपीराइट होता है।
अधिकारी-कर्मचारियों की आंखें चौंधियाने लगती हैं। उस गड्ढे से निकल रही भ्रष्टाचार की प्रकाश किरणें इतनी तेज होती हैं कि वह उससे प्रभावित हुए बगैर नहीं रह पाता। ठेकेदार से लिए कमीशन से लेकर वर्क ऑर्डर तक और अब गड्ढे को पुन: पक्की सड़क में तब्दील करने के लिए उठने वाले ठेके से आने वाली मलाई उसे तृप्त कर देगी।
ले-देकर बचा आम आदमी। वह जब इस गड्ढे को देखता है तो खुद के हिंदुस्तान में पैदा होने से लेकर सरकार तक तमाम बातों को कोसता है। वह यह भी सोचता है कि जब यह गड्ढा होना ही था तो सड़क बनाने की जरूरत क्या थी। वह भला मानुष यह नहीं सोचता कि सड़क न बनती तो यह गड्ढा कैसे होता? आखिर सड़क बनाई ही इसलिए जाती है कि यह बने और इस पर ऐसे ही गड्ढे हों। थोड़ी देर गड्ढे पर अनर्गल विचार और माथाफोड़ी के बाद आम आदमी सोचता है जाने दो भाड़ में, मुझे क्या पड़ी है? विचारों की इसी भूलभुलैया में वह यह भूल जाता है कि उसके पैर गड्ढे तक आ चुके हैं। उस गड्ढे का होना अब पूरी तरह सिद्ध हो जाता है। वह जिस आम आदमी के लिए बना होता है, उसी के काम आ जाता है।
भीलवाड़ा की शायद ही कोई ऐसी सड़क को जिस पर खड्डा ना हो , वस्त्र नगरी से पहचान रखने वाली भीलवाड़ा नगरी के टेक्सटाइल क्षेत्र में मुख्य सड़कों पर बड़े-बड़े खड्डे पड़े हुए हैं लेकिन 2 माह से उस और किसी की निगाह नहीं गई कलेक्ट्री के आसपास के क्षेत्र में भी सड़कें टूटी हुई है नालियों के ढक्कन टूटे पड़े हैं लेकिन नगर परिषद के अधिकारी मूकदर्शक बने उनकी निगाहें तो अवैध निर्माण पर भी नहीं जाती है।