कैमरे और आईने का डर, कलई और पोल-पट्टी खोलने को रहते हैं आतुर
हमें बचपन से दो चीजों का शौक रहा। पहला फोटो खिंचवाने का और दूसरा दर्पण के सामने खड़े होकर अपने आप को निहारने का। दोनों में एक बात कामन हुआ करती थी और वह थी कि दोनों में ही भांति-भांति के पोज बनाने की सुविधा रहती थी। वक्त बदला। सेल्फी का दौर आ गया। हाथ-हाथ में मोबाइल है इसलिए हम भी बदल गए हैं। अब तो हमारे लिए कैमरा और आईना, दोनों ही डराने का सबब हो गए हैं। हाल यह है कि कैमरा देखते ही अपन दाएं-बाएं खिसक लेते हैं और दर्पण के सामने जाने से डर लगने लगता है।
तो इसे कहते हैं समय का बदलाव। यह कैमरा हमारे चरित्र की कलई खोलने पर आमादा दिखता है और आईना है कि चेहरे की पोल-पट्टी खोलने लग जाता है। क्या ऐसा सिर्फ हमारे ही साथ हो रहा है? नहीं भाई, कतई नहीं। अब तो हम समाज में जिसको भी देखते हैं, वही कैमरे और आईने से भागने लग गया है। आज के अधिकांश लोग सत्य का सामना करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। झूठ न कैमरा बोलता है, न आईना। आज के इंसान के चेहरे इस लायक ही नहीं रहे कि वे सच को बर्दाश्त कर सकें।
हम एक विवाह समारोह में गए थे। वहां पर भी कैमरे की जद में थे। ज्यों ही खाने के लिए प्लेट में तरह-तरह के पकवान रखे और पहला कौर मुंह में डाला ही था कि कैमरामैन सामने आ गया। चमकाने लग गया फ्लैश लाइट। उस फ्लैश लाइट का ऐसा रिफ्लेक्स एक्शन हुआ कि दाएं हाथ में पकड़ी रोटी बाएं हाथ होते हुए अपनेआप ही प्लेट में वापस आ गई। ठीक वैसे ही जैसे क्रिकेट में एक्शन रिप्ले दिखाया जाता है। जहां पर खाने की भी रिकार्डिंग हो रही हो, वहां भला कोई चीज कैसे गले के नीचे उतर सकती है?
मैं सोचने लग गया, बाद में घर वाले इस शादी की वीडियो रिकार्डिंग देखेंगे और कहेंगे व्यवहार-बरतौनी दी दो सौ रुपये और अगला कैटरर के पांच सौ रुपये की प्लेट पर ऐसे हाथ साफ कर रहा है, गोया बरसों से भूखा हो। उसी शादी में एक और वाकया हो गया। नाराज फूफा और जीजा ने कैमरे के सामने आने से यह कह इन्कार कर दिया कि उन्हें नए लड़के मनमाफिक नागिन डांस नहीं करने दे रहे हैं। उन्होंने बारात का बहिष्कार कर दिया और मोर बन गए। उनका कहना था कि कोई देखे या न देखे, वे जंगल में जाकर नाच लेंगे, मगर इस विवाह में हरगिज नहीं नाचेंगे।
आईने की तो पूछिए ही मत। आजकल अपना ही प्रतिबिंब कंकाल नजर आता है। आंखों में जबसे बेईमानी का मोतियाबिंद उतरा है, चश्मे के बिना ही जमीर का चेहरा स्पष्ट दिखने लगा है। स्वयं को ही मुंह दिखा पाना कठिन हो गया है। छोटी-मोटी बेईमानियां तो हमने भी की ही हैं। माना कि कभी कोई रिश्वत नहीं ली, क्योंकि इसके अवसर नहीं थे या फिर वह रकम इतनी छोटी हुआ करती थी कि शर्म आती थी लेने में। फिर भी पचास-सौ फर्जी काम तो किए-कराए ही होंगे। और तो और, अपने तमाम काम कराने के एवज में कितनों को रिश्वत भी दी है। कभी ट्रेन में रिजर्वेशन की सीट के लिए और कभी सरकारी महकमे में शीघ्र काम कराने के वास्ते। कभी बिजली की चोरी की है, कभी टैक्स की। कामचोरी तो खैर ताजिंदगी की ही है। अंतरात्मा पर कालिख की मोटी परत जम गई है। जिसको पीठ पीछे गालियां देता रहा, जरूरत पड़ी तो सार्वजनिक तौर पर उसके पांव तक छुए। ऐसे में स्वार्थ के अंधे को दर्पण से डर लगना स्वाभाविक ही है। हम भी एकांत में अपने से खौफ खाते हैं। दर्पण नहीं चिटका, हम ही अंदर से चिटक गए हैं।
हम-खयाल साथियों, हम तो कैमरे और आईने से इसलिए डरते हैं कि अपन कहीं किसी लफड़े में फंस गए तो कौन बचाएगा? आम लोग हैं हम। हमारी पहुंच न सरकार तक है, न भगवान तक। दोनों से ही भयभीत रहना पड़ता है। बाहर सरकार से और भीतर अपने भगवान से। मगर आज वे लोग क्यों डर रहे हैं, जिनकी पहुंच सरकारों में भी है और भगवान भी जिनका कुछ नहीं बिगाड़ पाता। उन्हें भला स्टिंग आपरेशन, मीडिया कवरेज, चैनलिया बहस आदि से घबराने की क्या आवश्यकता है?