मैं भी चुनाव लड़ने का सोच रहा हूं, जनसेवा की थाली में परोसी जा रही लाभ की रोटी और लोभ की सब्जी

 मैं भी चुनाव लड़ने का सोच रहा हूं, जनसेवा की थाली में परोसी जा रही लाभ की रोटी और लोभ की सब्जी
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 इधर-उधर करते उम्र निकल गई। मेरा सयानापन बड़ी देर से जागा है। सोचता हूं, मैं यूं ही कब तक मतदाता बना रहूंगा? मेरे भीतर की भाग्य विधाता बनने की चाहत अकुलाने लगी है। इस बार मैं भी चुनाव लड़ने का सोच रहा हूं। वैसे भी, सोचने में कोई खर्च तो लगता नहीं है। मेरी यह मनोकामना सुनकर मेरे एक मित्र राय देते हैं कि मुझे मतदाताओं का रुझान देखकर अपनी पार्टी चुननी चाहिए। मैं उनसे कहता हूं, 'इस वोटर नाम के जीवात्मा का क्या भरोसा, वह शांत बना रहता है। बटन दबाने के समय तक अपना मन बदलता रहता है। ऐसे मन बदलुओं के भरोसे रहा तो मैं कहीं का नहीं रहूंगा। मुझे स्वयं निर्णय लेना है। वक्त कम है। इन मतदाताओं से चुनाव के बाद भी निपटा जा सकता है।'

मित्र कहते हैं, 'लोकतंत्र में वोटर और सपोर्टर ही भगवान होते हैं। उनकी पूजा-अर्चना करनी चाहिए। आरती गानी चाहिए। मतदाताओं के प्रति आपकी यह दुर्भावना सर्वथा अनुचित है।' मैं कहता हूं, 'मजमे के सामने जो कहा जाता है, पीठ पीछे उसके विपरीत आचरण करना ही सच्ची राजनीति है। इसीलिए चुनाव आते ही कोई मोहब्बत की दुकान खोलकर बैठ जाता है और कोई गमले में मूली उगा कर दिखलाने लगता है। बात बनाने और जज्बात भड़काने में माहिर लोग लाल मिर्च और हरी मिर्च का रंग भी पहचानने लगते हैं। लाल और हरे टमाटर के भाव भी बताने लगते हैं। आज की जनसेवा उस थाली की तरह हो गई है जिसमें लाभ की रोटी और लोभ की सब्जी परोसी जाती है। इसके स्वाद के क्या कहने?' मित्र मुस्कुराने लगते हैं और कहते हैं, 'सचमुच आप सत्ता के संक्रमण का शिकार हो चुके हैं। आपकी आंखों में कुर्सी की कंजक्टिवाइटिस का संक्रमण साफ दिखलाई दे रहा है। सफलता आपके चरण चूमेगी।'

फिलहाल मेरी उम्मीदवारी का भविष्य कुल तीन बातों पर टिका हुआ है। पहली बात कि अभी सभी दलों में टूट-फूट जारी है। राष्ट्रीय किस्म के दल क्षेत्रीय पार्टियों से तालमेल कर रहे हैं। इधर के मेंढक उधर और उधर के इधर छलांग लगा रहे हैं। कभी किसी का पलड़ा भारी दिखता है, कभी किसी का। ऐसे हालात में चुनाव के वक्त तक किसका किससे गठबंधन हो जाए और कितनी सीटें समझौते की भेंट चढ़ जाएं, यह भगवान भी नहीं जानता। मैं जानने की कोशिश में हूं। इसलिए मेरा पहला प्रयास भारी पलड़े वाली झोली में गिरने का होगा। मैं डंडी मारने में लगा हुआ हूं। दूसरी और जरूरी बात है कि मैं अगले चुनाव में किस दल का प्रत्याशी बनूंगा, यह मात्र उस पार्टी द्वारा मुझको टिकट दिए जाने और मेरी उम्मीदवारी के आखिरी वक्त तक बचे रहने के बाद ही सुनिश्चित होगा। बात नंबर तीन, संभावना यह भी है कि मैं एक निर्दलीय, असंतुष्ट या विद्रोही उम्मीदवार के तौर पर मैदान में कूद पड़ूं, लेकिन इसकी उम्मीद न के बराबर है। मेरी निजी हैसियत इसकी अनुमति नहीं देती।

मेरा इस देश की तमाम जर्जर और नवोढ़ा पार्टियों से मोलतोल जारी है। नए-नए गठबंधन तैयार हो रहे हैं। मैं किस दल का उम्मीदवार बनकर पैदा होने वाला हूं, यह अभी भविष्य के गर्भ में है। लोगों को जल्दी ही खुशखबरी सुनने को मिलने वाली है। फिलहाल मैं प्रत्येक पार्टी से अपना जुगाड़ भिड़ा रहा हूं। अभी मैं अपनी डगमग निष्ठा की नाव पर बैठकर अपनी दावेदारी की सिन्नी सभी दलों में बराबर-बराबर बांट रहा हूं। सब पर प्यार लुटा रहा हूं। सभी के संपर्क में हूं। जो हत्थे चढ़ जाएगा उसी के गले पड़ जाऊंगा। चुनावी चंदा न देने वालों की खोपड़ियों जैसे मेरे सारे विकल्प खुले पड़े हैं।

बहरहाल मैं प्रत्याशी बनने की ठान चुका हूं। मैंने कमर कस ली है। वादे करने, गारंटी देने, हाथ जोड़ने और पांव छूने का अभ्यास भी कर लिया है। मैं आगे चलकर जिस निर्वाचन क्षेत्र से भी लड़ूंगा-भिड़ूंगा, मेरी वहां के अज्ञात निर्वाचकों से साष्टांग गुजारिश है कि वे दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर मुझे एक मौका जरूर दें। दावा करता हूं कि जीत के उपरांत मैं सरकार बनाने की स्थिति में होने वाले दल का साथ देने वालों की लाइन में सबसे आगे खड़ा मिलूंगा।

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