संवत्सरी पर एक न हुए तो एकता की बातें बेमानी- राष्ट्रसंत

संवत्सरी पर एक न हुए तो एकता की बातें बेमानी- राष्ट्रसंत
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आकोला (रमेश चंद्र डाड) बीगोद भारतवर्ष में स्थानकवासी जैन समाज में 'संवत्सरी पर्व' मनाने जाने को लेकर मत मतान्तर चल रहे हैं, जिसके सतत् प्रयासों के बाद अधिकांश संत तो एक मत हो गए हैं किंतु कुछ संत अपनी बात पर कायम हैं, जिससे पर्व  दो भागों में बॅंटने की संभावना बनी हुई है , उक्त जानकारी देते हुए अखिल भारतवर्षीय जैन दिवाकर मंच नई दिल्ली की राष्ट्रीय मंत्री मधु संचेती, बीगोद ने राष्ट्रसंत कमलमुनि जी महाराज 'कमलेश' द्वारा जारी विज्ञप्ति का एक ताजा प्रेस नोट जारी किया है जिसमें राष्ट्रसंत ने कहा कि-
श्वेतांबर जैन समाज की स्थानकवासी परंपरा में संवत्सरी पर्व एक ही दिन मनाए जाने को लेकर पिछले समय से चल रहे प्रयास काफी सफल हुए हैं एवं करीब दो तिहाई से भी ज्यादा संत-साध्वीवृन्द  ने संवत्सरी पर्व 12 सितंबर से प्रारंभ करके 19 सितंबर को संवत्सरी महापर्व मनाने का निर्णय लिया है। श्वेतांबर स्थानकवासी समाज के 3440 तथा तेरापंथ धर्म संघ के 713 साधु साध्वी यानी कुल 4153 साधु-साध्वी इसी तिथि पर आराधना के लिए सहमत हो गये हैं , जिसमें श्रमण संघ के आचार्य सम्राट डॉक्टर शिवमुनि जी महाराज के सतत प्रयास अनुकरणीय व अनुमोदनीय रहे हैं। श्रावक श्राविका वर्ग ने भी संवत्सरी एकता की आवाज उठाई है। समाजरत्न नेमीचन्द चौपड़ा पाली ने सभी जैन समुदायों द्वारा एक साथ 12 से 19 सितंबर तक पर्व मनाने का निर्णय लिया है। यहां समस्त जैन समाज एकजुट है तथा लगातार 8 दिवस जैन प्रतिष्ठान बंद रहते हैं। इसी क्रम में अखिल भारतवर्षीय जैन दिवाकर विचार मंच की राष्ट्रीय  मंत्री मधु संचेती सहित कई विशिष्ट जनों के सकारात्मक प्रयास भी अभिनंदनीय रहे है। दिनकर संदेश समाचार पत्र की लेखनी भी इसमें सहयोगी रही है। मैंने कई वर्षों से संवत्सरी एकता के प्रसंग को उठाया है एवं इसके स्थाई समाधान की अपील भी की है। 
इतना सब कुछ होने पर भी कुछ धर्म संप्रदायें चातुर्मास स्थापना के 50 वें दिन व 70 दिन शेष रहने के अपने अपने अर्थों पर कायम है, जिससे ऐसा लग रहा है कि समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग 12 से 19 सितंबर को पर्युषण पर्व की आराधना करेगा तथा कुछ संप्रदाय 14 अगस्त से पर्वोराधना शुरू करेगी, ऐसे में दौनों ही मत पंथ 1 महीने के अंतर में पर्वोराधना करेंगे, जो जैन समाज की एकता के लिए दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति का निर्माण करेगी। सामाजिकता एकता की दृष्टि से यह एक हास्यास्पद स्थिति होगी। 
आगम अनुसार चातुर्मास 4 महीने यानी अब 120 दिन का होता है ,5 महीने का उल्लेख नहीं है , इसका पालन व्यवहार से करते हैं अब इसमें आचार्य अपने अपने मतानुसार तथा परंपराओं का हवाला देकर श्रावक वर्ग को चक्कर गिन्नी बना रहे हैं। वैसे सनातन दर्शन के पर्व रक्षाबंधन, जन्माष्टमी के बाद ही पर्युषण आते हैं, गणेश चतुर्थी के एक दिन बाद क्षमापना पर्व आता है और ये सभी पर्व दूसरे श्रावण में भी मनाए जाते हैं। फिर हम क्यों नहीं इस पर विचार करतेॽ
आदर्श व उच्च शिक्षित समाज के व्यक्तियों को लोक व्यवहार पर भी ध्यान देना चाहिए। उच्च वर्ग हमेशा लोक व्यवहार को आवश्यक समझता रहा है। उच्च कुलीन विवेक संपन्न व्यक्ति यह अवश्य देखते हैं कि कहीं अपने द्वारा किए जाने वाले कार्य की लोग निंदा तो नहीं करेंगे ॽ इस कार्य को करने से समाज की, धर्म की कीर्ति को धब्बा तो नहीं लगेगा । लोग यह तो नहीं कहेंगे कि आगमों की, शास्त्रों की ही अपने-अपने ढंग से व्याख्या की जा रही है। खुद ही बिखराव पैदा कर रहे हैं एवं दूसरों को एकता के संदेश दे रहे हैं । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जनता थर्मामीटर होती है , हमारे कार्यों का आचरणों ,व्यवहारों का नाप तोल इतना जल्दी कर लेती है कि हम स्वयं नहीं कर सकते। अतः नीति का यह श्लोक भी प्रचलित है-
 यद्यपिशुद्धं, लोकविरूद्धं
ना चरणीयं, न करणियं 
यदि हम अच्छे से अच्छा कार्य भी कर रहे हैं उसमें कोई दोष भी नहीं है, वह शुद्ध है किंतु लोक विरुद्ध है, व्यवहार से विपरीत है तो उस कार्य को मत करिए। शुद्ध व अच्छे काम को भी लोकाचार के लिए रोक देना पड़ता है। 
आदर्श उच्च व ख्यातिसंपन्न प्रेरणीय समाज में रहने वाला व्यक्ति प्रत्येक कार्य पूर्ण विवेक व बुद्धि से करता है। विवेकी व्यक्ति कभी भी अपने घर में परिवार में फूट नहीं पड़ने देता है किंतु सभी प्रयासों के बाद भी फूट पड़े तो उसे कभी भी सार्वजनिक नहीं करता ,जग जाहिर नहीं करता। 
उसी  दृष्टि से मेरा संपूर्ण श्वेतांबर जैन समाज से अनुरोध है कि अभी भी वक्त है कि आप एक होकर बहुसंख्यक फैसले के अनुसार 12 सितंबर से पर्युषण पर्व की आराधना कर 19 सितंबर को संवत्सरी मनाने का निर्णय ले एवं सामाजिक एकता में योगदान दें। और यदि फिर भी कोई न माने तो कम से कम नहीं मानने वाले इतना तो समर्पण करें कि इन तिथियों से पूर्व  पर्वाराधना करने वाले उसे प्रचारित ना करें । पर्वाराधना कर भी ले तो क्षमा याचना 19 सितंबर को ही करें। पूर्व में की जाने वाली पर्वाराधना को मात्र अपने तक सीमित रखें उसे लोक व्यवहार में जग जाहिर न होने दें तो भी हल्की सी  एकता की झलक तो दिख जाएगी। 
यह विचार करें कि हमारी फूट की वजह से सरकार ही असमंजस में है कि वह मांस व शराब की दुकानें कब बंद करें । यदि संवत्सरी एक दिन मनाई तो कत्ल खान आदि बंद कराने की बात सरकार के गले उतरेगी और यह लोक व्यवहार में भी हमारी एकता का परिचायक बन जाएगी, किंतु यदि हम ऐसा भी नहीं कर पाते हैं तो हमें सामाजिक एकता, धर्म की एकता, जैन समाज की एकता की बातें करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है।

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