रिश्तों में कभी-कभी जरूरी है मौन रहना, लेकिन बात बंद होना नहीं...

रिश्तों में कभी-कभी जरूरी है मौन रहना, लेकिन बात बंद होना नहीं...
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 अन्वेषा की अपनी बड़ी बहन से काफी जमती है, लेकिन कुछ बिंदुओं पर, जैसे कि घूमना-फिरना, खान-पान इत्यादि में उनके बीच मतभिन्नता है. जब भी फैमिली ट्रिप या कहीं वीकेंड की बात होती है, दोनों में इन बातों को लेकर बहस होने लगती है. परिणाम, धीरे-धीरे उनके बीच बातचीत बंद रहने लगी है.

 

 

इसी प्रकार अंबुज अपने हमउम्र चाचा के साथ काफी सहज है, लेकिन उसमें दखलंदाजी की भावना प्रबल है. हर बात में उसको अपनी तरह से चलाने की आदत है. नतीजा हुआ कि चाचा अब उससे असहज होने लगे हैं और यहां भी बातचीत बंद होने के कगार पर है. क्या इन दोनों या इन जैसी अन्य परिस्थितियों को हम 'रिश्तों में मौन पसरना' कह सकते हैं? नहीं, बिल्कुल नहीं. बल्कि ये चुप्पी या संवादहीनता का आरंभ है, जिससे रिश्तों पर दुष्प्रभाव पड़ता है.

 

दुराव नहीं हैं अलग वैचारिकताएं

सबसे पहले समझना चाहिए कि आपसे अलग मत रखनेवाला व्यक्ति जरूरी नहीं कि आपका अहित चाहता हो. हर किसी का अपना व्यक्तित्व होता है, जिसका सामंजस्य आपके दृष्टिकोण से नहीं बैठ पाता है. मतभेद होना तो अस्तित्व का सूचक होता है. दूसरों के साथ जीवन जीने या सामाजिक अस्तित्व को बनाने के लिए पहली शर्त यही है कि हम दूसरों के मतभेदों के साथ अधिक-से-अधिक सहज होकर जीना सीखें. मतभेद का अर्थ केवल आलोचना नहीं, बल्कि यह नये दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने का एक माध्यम भी हो सकता है.

मौन बनाम शाब्दिकता

घर में जिसके व्यक्तित्व के सभी आयामों से आपका तालमेल शानदार है, उसके साथ आप जितना अधिक शाब्दिक रहेंगे, उतना ही बढ़िया रिश्ता बनता जायेगा, मगर जिनके साथ आपका अनुभव ऐसा नहीं है, वहां मौन का प्रयोग काम आता है. चार्ल्स कालेब कोल्टन ने कहा है- “जब आपके पास कहने के लिए कुछ न हो, तो कुछ न कहें”. जबरन किसी से केवल इसलिए बात मत करें, क्योंकि आपको उससे बतियाना है. इससे नीरसता और वाद-विवाद की संभावना बढ़ जाती है. ईसप का मत रहा है- ‘‘बुद्धिमान लोग खतरे के समय कुछ नहीं कहते’’. जहां बात बिगड़ने का अंदेशा होने लगे, दोनों पक्षों को शांतिपूर्ण ढंग से मौन का आसरा ले लेना चाहिए. इससे किसी भी तरह के मतभेद से बचा जा सकता है.

  

बातचीत बंद होना नहीं है ‘मौन’

अक्सर, हम सुनते रहते हैं कि अमुक व्यक्ति की फलाने से बोलचाल बंद है. इसकी उससे इतने समय से बात नहीं हुई है. ऐसे-वैसे, ये सब चीजें मौन का उपयोग नहीं, बल्कि मौन का अपरिपक्व उदाहरण हैं, क्योंकि ऐसे मामलों में चुप रहकर एक-दूसरे की टांग खिंचाई के मौके भी भरपूर खोजे जाते हैं. जबकि, हेनरी वर्ड्सवर्थ लॉन्गफेलो का स्पष्ट कथन है- ‘‘मौन एक महान शांतिदूत है’’. अतः मौन की सीमा में किसी से शीतयुद्ध नहीं किया जाता है. इसको हम डी सेल्स के शब्दों में और बेहतर ढंग से समझें तो ‘‘एक विवेकपूर्ण चुप्पी, परोपकार की भावना के बिना बोले गये सत्य से बेहतर होती है’’. रिश्ता चाहे जो भी हो, ये बात सबके साथ लागू करनी होगी.

महिलाओं का सखा है ‘मौन’

‘‘जब शब्द नहीं बोलते, तो मौन बोलता है’’ और इस उक्ति को महिलाओं ने जितना समझा और व्यवहार में लाया है, पुरुषों में देखने को कम मिला है. कारण है कि स्त्री, चेतना का प्रतीक है, जबकि पुरुष स्थूल मिट्टी का प्रतिनिधित्व करने वाला होता है. उस मिट्टी की मूरत की चेतना तो स्त्रैण ही होगी! यही वजह है कि घरों में स्त्रियां, मौन के दायरे में रहकर सारी जिम्मेदारियों को भली-भांति निभाती चली आती हैं. एल्बर्ट हबर्ड की कही बात- ‘‘जो तुम्हारी खामोशी को नहीं समझ सकता, वह तुम्हारे शब्द भी शायद ही समझ पाये’’. इसको दुनिया की महिलाओं नेे काफी अंगीकार किया है. इस बात को गहरायी से कोई भी देखें, तो उसको निश्चित रूप से अपने घर की महिलाओं में ही दिख जायेंगे.

अपना रवैया सही हो

किसी के अच्छे स्वभाव का फायदा उठाने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए. जिग जिग्लार कहते हैं- ‘‘आपकी सफलता आपकी योग्यता नहीं, बल्कि आपका रवैया तय करेगा’’. एंड्रयू मर्ले का भी कहना है- ‘‘इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कितने प्रतिभाशाली, अनुभवी या मेहनती हैं- यदि आपकी मनोवृत्ति खराब है, तो आपके विकल्प सीमित हो जायेंगे”. ऐसे में घर में कोई यदि सुलझा हुआ व्यक्ति है, तो उसके साथ अधिक-से-अधिक सम्मान से रहने की जरूरत है. इससे परिवार के बीच शांति और सौहार्द का माहौल कायम रहता है.

मौन ही सिखाता है...

कहां बोलना है, कहां चुप रहना है. जैसे कबड्डी का एक सफल खिलाड़ी आगे बढ़ने के साथ-साथ पीछे हटना भी जानता है, वैसे ही बोलने के संग-संग चुप होने की भी समझ होनी चाहिए.

आपका खुश रहना, सबसे ज्यादा आप पर निर्भर करता है. अलेक्जेंडर सोल्झेनित्सिन ने भी कहा है- ‘‘एक आदमी तब तक खुश रहता है, जब तक वह खुश रहना चाहता है’’. इसलिए खुशियां अपने अंदर ही ढूंढ़नी चाहिए, बजाय औरों के कामों में देखने के.

चलते-फिरते भी ध्यानमग्न रहा जा सकता है. हम जितना भीतर से शांत रहेंगे, उतना ही बाहर से निखरते जायेंगे. इस बात को घर के हर एक सदस्य को जानना चाहिए. किसी से ऐसा बर्ताव पहले देखने के बदले खुद ऐसा बनकर दिखाना जरूरी है.

वैचारिक विविधता का सम्मान करना जरूरी है. मतभेद से परेशान होकर गलती करने की जगह उसका सबसे सरल समाधान खोजना ही सही विकल्प होता है.

‘‘मौन जब मुखरित हुआ तो शब्द उसमें खो गये

और थोड़े क्षम विलोचन चेतना के हो गये.

मुक्तता, संकीर्णता के वर्तुलों से मिल रही,

वास्तविकता के धरातल पर मनुज हम हो गये .’’

हम अपने मानवीय दायित्वों का निर्वहन करना सबसे पहले अपने घर से शुरू करें, तो ये हमारे समाज के लिए भी एक बहुत अच्छी बात होगी. घर में किसी से किया गया अपना आचरण ही आगे चलकर हमारी छवि समाज में तय करता है, इसलिए घर में हम शब्दों और मौन के बीच तारतम्य बनाते हुए जितना अधिक चल सकेंगे, खुद को उतना ही सार्थक कर सकेंगे.

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