बसंत के महीने में डाल-डाल में उठने वाली पलाश के फूलों की लौ, कहीं बुझ ना जाए.....
राजसमन्द( राव दिलीप सिंह) पलाश/ढाक/खाखरा के पेड़ के पत्तों की खासियत है कि वह सदा एक साथ में हमेशा तीन-तीन के जोड़े में विन्यासित रहते हैं। केवल पतझड़ के मौसम को छोड़कर सभी ऋतुओ में पलाश का पौधा अपने चौड़े तीहरे पत्तों द्वारा प्रकृति में सदा हरीतिमा को बिखेरता रहता है । भीषण गर्मी के समय में भी पलाश के पत्ते सदा हरे बने रहते हैं । इसलिए यह कहावत भी वहीं से निकली है कि "ढाक के तीन पात" अर्थात "सदा एक सा रहना" । जिस पर प्रकृति की प्रतिकूल परिस्थितियों का कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है । लेकिन, मानव की अमानवीय गतिविधियों तथा प्रकृति में तेजी से फैल रही जूली फ्लोरा(बिलायती बबूल), लैंटाना केमारा(गैंदी)और गाजर घास(चटक चांदनी) नामक जहरीली व खतरनाक खरपतवारो के आक्रमण से ढाक के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं । बहुउपयोगी, पवित्र एवं आकर्षक "जंगल की आग" कहलाने वाला पलाश अथवा खाखरे का पौधा बसंत ऋतु में अपने सुंदर फूलों द्वारा जंगल को अपने लाल-पीले रंग से भर देता था तथा सहज ही फूलों से लदे हुए पलाश के पेड़, जीव मात्र को अपनी और आकर्षित करते थे । लेकिन, फेबेसी कुल का सदस्य पलाश (ब्यूटीया मोनोस्पर्मा) मझोले आकार का यह वृक्ष के अस्तित्व को लेकर संकट के बादल मंडराने लगे है । क्योंकि जितनी मात्रा में पलाश अथवा खाखरे की कटाई की जा रही है, उस अनुपात में इसका रोपण एवं संरक्षण नहीं किया जा रहा और तेजी से इस बहुपयोगी पादप प्रजाति की अस्तित्व पर ही संकट आ चुका है ।
मेवाड़ अंचल में खाखरे के पेड़ों की संख्या बहुतायत में, लेकिन अस्तित्व पर खतरा......
मेवाड़ अंचल के उदयपुर, डूंगरपुर, प्रतापगढ़, राजसमंद,सिरोही, आदि जिलों में विस्तार लिए हुए अरावली पर्वत श्रृंखला, जहां पर प्राकृतिक जलस्रोत नदियां, तालाब, आदि का प्रवाह एवं संचय क्षेत्र है, उन स्थानों पर खाखरे के पेड़ बहुतायत से पाए जाते हैं । जो मार्च की तपती गर्मी में वन्य जीव अभ्यारण में कुंभलगढ़, सीतामाता, माउंट आबू, सहित अन्य प्राकृतिक स्थलों खमनोर, आमेट, गोगुंदा, हल्दीघाटी, आदि क्षेत्रों में जंगलों की सुंदरता एवं शोभा बढ़ाने में पलाश पौधे की महत्वपूर्ण भूमिका है । इन क्षेत्रों में देश-विदेश से आने वाले पर्यटक एवं प्रकृति प्रेमियों को पलाश का यह आकर्षक सुंदर फूलों व चौड़ी पत्तियों से लदपद पौधा सहज ही अपनी और आकर्षित करता है । ग्रीष्म ऋतु के आरंभ काल में पलाश के पौधों पर इसकी शाखा से सीधे पुष्प खिलकर, अपने अग्नि या भगवा रंग से इंसानी दुनिया सहित सभी जीव जंतुओं को अपनी ओर आकर्षित करते हैं । वही प्रकृति में बहुतायत से पाई जाने वाली कीट प्रजाति के विभिन्न भंवरे, तितलियां, मधुमक्खियां, हमिंग बर्ड, आदि को अपने मकरंद की गंध और पुष्प रस से तरोताजा कर देते हैं तथा यह पुष्प परिपक्व होकर जमीन पर पुष्पों की मानो चादर बिछा देते हैं। वनवासी लोग आज भी अपने भोजन पात्र के रूप में पलाश के पत्तों का ही उपयोग करते हैं, जो प्रकृति अनुकूल आचरण है।
गुणों की खान एवं संस्कृति की पहचान है, पलाश का पवित्र पौधा..
भारतीय संस्कृति की मान्यता के अनुसार पलाश का पौधा पवित्र माना गया है, जिसकी लकड़ी को पवित्र मानते हुए यज्ञ हवन सामग्री के रूप में काम में लिया जाता है । इस पौधे की जड़ से लेकर, तना, छाल,पत्तियां, पुष्प, फलियां, बीज, आदि सभी भाग अत्यंत ही औषधीय गुण एवं उपयोगी है । प्रकृति प्रेमी शिक्षक कैलाश सामोता रानीपुरा ने बताया कि इस पौधे में अंकुरण के समय से ही तीन पात/पत्ते एक साथ निकलते हैं । और इसी के चलते एक कहावत भी प्रचलित है कि "ढाक के तीन पात" ही हैं, जो मौसम की विपरीत परिस्थिति में भी अर्थात सदा एक से बने रहते हैं। पलाश के पौधे की मोटी छाल से गोंद एवं रेशे प्राप्त किए जा सकते हैं, जिनमें औषधीय गुण होते हैं । वही पलाश के पौधे की जड़ों से प्राप्त रेशे रस्सी बनाने, रंग व पुताई करने हेतु ब्रश बनाने में उपयोग में ली जाती है । आदिकाल से ही वनवासी लोगों द्वारा खाखरे अथवा पलाश के तीन तीन के जोड़े में लगे चौड़े पत्ते विघटनकारी व प्रकृति हितकारी मानव आहार में उपयोगी पात्र पत्तल-दोने निर्माण में काम में ली जाती हैं । वही विशेषकर दुधारू मवेशियों के लिए पत्तियां पोस्टिक आहार हैं, जिनके सेवन से उनके दुग्ध में वृद्धि होती है । पलाश के बड़े, अर्धचंद्राकार एवं गहरे लाल रंग के पुष्प, जोकि फागुन महीने के अंत और चैत्र मास के आरंभ में लगते हैं । उस समय पौधे के सभी पत्ते झड़ चुके होते हैं और पेड़ फूलों से लदपद हो जाते हैं जो देखने में आकर्षक होते हैं तथा नेत्रों को सुखद अनुभूति देते हैं । वनवासियों द्वारा पलाश के पुष्पों से शहद, मकरंद एवं प्राकृतिक रंग निर्मित किए जाते हैं तथा कच्चे आम को पकाने में भी काम में लेते हैं। पलाश के फूलों के झड़ जाने पर, इन शाखाओं से चोड़ी फलियां निकलती हैं, जिनमें गोल और चपटे बीज होते हैं । इन फलियों को पलाश पापड़ा या पापड़ी तथा इनके बीजों को पलाश बीज कहते हैं । पलाश के फूल एवं बीज औषधीय गुणों वाले एवं सौंदर्य प्रसाधन हेतु सामग्री निर्माण में काम आते हैं । पलाश के बीज कर्मीनाशक औषधि निर्माण का प्रमुख स्रोत है । इसलिए बहु- उपयोगी वनस्पति प्रजाति के सदस्य पलाश के पौधे का तेजी से हो रहा उन्मूलन व विनाश को रोकना बहुत जरूरी है ।
पवित्र पलाश की नर्सरीयां विकसित कर, पत्तल-दोने व्यवसाय को मिले बढ़ावा.....
पर्यावरणविद शिक्षक कैलाश सामोता रानीपुरा का कहना है कि जंगल की इस बहु उपयोगी वनस्पति को बचाने के लिए, क्षेत्र में अधिकाधिक पलाश के पौधे की नर्सरी या विकसित कर, आमजन को निशुल्क पलाश के पौधे उपलब्ध कराए जाने जरूरत है तथा इसकी कटाई को भी प्रतिबंधित किए जाने की आवश्यकता है । पलाश पौधे पर प्रकृति आधारित पत्तल- दोने, रस्सी, ब्रश, मकरंद, शहद, गोंद एवं प्राकृतिक रंग निर्माण के लघु उद्योगों को बढ़ावा देकर, आमजन को प्रकृति आधारित रोजगार दिए जाने की जरूरत है । पलाश के पौधे के पत्तल दोनो के निर्माण से सिंगल यूज प्लास्टिक निर्मित पत्तल, दोनो एवं गिलास से हो रहे पर्यावरण प्रदूषण में भी कमी आएगी । सड़क निर्माण, खेत निर्माण अथवा अन्य विकास के नाम पर पलाश के पवित्र पौधे का विनाश तेजी से हो रहा है, जो इसके अस्तित्व के समाप्ति का मुख्य कारण है । इसलिए प्रकृति की इस सुंदर वन संपदा को बचाने की मुहिम छेड़कर, इसे संरक्षित करने व सहेजने के लिए हर व्यक्ति को अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी । तभी उपयोगी ढाक की तीन पात और ढाक के पौधे के पतन पर रोक लग सकेगी और इसका अस्तित्व बच पाएगा ।