चिकित्सा जैसे पवित्र पेशे का यह हश्र... कभी सोचा नहीं था

भारतीय डॉक्टरों की पेशेवर दक्षता पर मुझे इतना विश्वास है कि बांग्लादेश में गंभीर बीमारियों से ग्रस्त मेरे दोस्तों-रिश्तेदारों को भारत आकर इलाज कराने के लिए कहती हूं। मेरे जो परिचित दूसरे देशों में हैं, उनसे भी कहती हूं कि शरीर की जांच या बीमारी के इलाज की अगर जरूरत पड़े, तो अस्पतालों में भारतीय चिकित्सकों को तरजीह दें। मैं भी जब अमेरिका जाती हूं, और चिकित्सीय जांच की जरूरत पड़ती है, तब अस्पतालों में पता करती हूं कि भारतीय डॉक्टर हैं या नहीं। अगर भारतीय डॉक्टर होते हैं, तो श्वेत अमेरिकियों को दरकिनार कर भारतीय डॉक्टर से सलाह लेती हूं। भारत से बाहर भारतीय चिकित्सकों पर मुझे इतना भरोसा क्यों है? इसका कारण क्या यह है कि हमारा इतिहास एक है? इसकी वजह क्या यह है कि एक ही उपमहाद्वीप का हिस्सा होने के कारण हम निकटता महसूस करते हैं?
ये सब कारण तो हैं ही, लेकिन असल कारण यह है कि पेशेवर दक्षता की कसौटी पर भारतीय डॉक्टर दूसरे देशों के डॉक्टरों से बहुत आगे हैं। भारतीय युवा मुश्किल प्रतियोगिताओं में बैठकर और पास होकर मेडिकल में दाखिला लेते हैं, फिर कठिन परीक्षा पास कर डॉक्टर बनते हैं। भारत से बाहर विकसित देशों तक में भारतीय डॉक्टर इतने सफल हैं, तो इसकी सबसे बड़ी वजह उनकी पेशेवर दक्षता ही है। यह अलग बात है कि पिछले साल के एक भीषण व्यक्तिगत अनुभव के बाद मेरी यह धारणा कुछ हद तक खंडित हुई है कि सभी भारतीय चिकित्सक अच्छे और अपने पेशे के प्रति ईमानदार ही होते हैं। इसके अलावा भी डॉक्टरों द्वारा की जाने वाली धोखाधड़ी की खबरें बीच-बीच में आती रहती हैं।
कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश के एक सरकारी अस्पताल के एक विख्यात हृदयरोग विशेषज्ञ को गिरफ्तार कर लिया गया। उनका जुर्म यह था कि उन्होंने कुल छह सौ मरीजों के शरीर में नकली और खराब पेसमेकर लगाए थे। पता यह चला कि जिन लोगों को पेसमेकर की जरूरत नहीं थी, उनके शरीर में भी जबरन पेसमेकर लगाए गए थे। इनमें से अनेक लोगों की या तो मृत्यु हो गई, या फिर वे शारीरिक समस्याओं का सामना कर रहे हैं। ऐसा उन्होंने क्यों किया भला? क्योंकि उन्हें टारगेट पूरा करना था। जाहिर है, ऐसा उन्होंने पैसा कमाने के लिए ही किया।
एक आंकड़ा बताता है कि भारत में 44 फीसदी ऑपरेशन गैरजरूरी होते हैं। यानी जहां सर्जरी की जरूरत नहीं है, वहां भी सर्जरी की जाती है। भारत में दिल के 55 फीसदी, गर्भाशय के 48 प्रतिशत, कैंसर के 47 प्रतिशत, घुटना प्रत्यारोपण के 48 फीसदी और 47 प्रतिशत सिजेरियन ऑपरेशन ऐसे ही होते हैं, जिनकी जरूरत नहीं है। अस्पतालों का कॉरपोरेटीकरण हो चुका है, इसी कारण बड़ी संख्या में सर्जरी की जरूरत है। ज्यादातर अस्पताल अब लोगों के स्वास्थ्य और मरीजों की सेवा के लिए नहीं हैं। खासकर अधिकतर निजी अस्पताल अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के लिए हैं। ज्यादातर निजी अस्पतालों में जितने डॉक्टर और नर्स हैं, उनसे भी ज्यादा वहां अस्पतालों का मुनाफा बढ़ाने वाले लोग होते हैं। सर्जनों को वहां मोटा वेतन अमूमन दिया ही इसलिए जाता है कि वे बड़ी संख्या में सर्जरी करेंगे और अस्पतालों की आमदनी बढ़ाएंगे।
मैंने मेडिकल की पढ़ाई की है, इसलिए डॉक्टरों को सेवा का उद्देश्य भूलकर सिर्फ पैसे के पीछे भागते देखना मुझे दुखद लगता है। मेडिकल कॉलेज से निकलने वाले नए डॉक्टरों को अपने पेशे के प्रति ईमानदार बने रहने की शपथ लेनी पड़ती है। इसे हिपोक्रेटिज की शपथ कहते हैं। प्राचीन यूनान के चिकित्सक हिपोक्रेटिज के नाम पर इस शपथ की शुरुआत ईसा पूर्व पांचवीं सदी में हुई थी। यह शपथ इस तरह है : 'किसी मरीज का नुकसान नहीं करूंगा। रोगी की बेहतरी के लिए तमाम उपाय अपनाऊंगा। दूसरे चिकित्सकों को अपना परिवार समझूंगा और नि:स्वार्थ भाव से उनकी चिकित्सा और सेवा करूंगा।'
घुटने पर चोट लगने के कारण जिस दिन मैं नई दिल्ली स्थित एक बड़े और नामचीन निजी अस्पताल में गई थी, उस दिन चिकित्सक के साथ मैं एक मरीज भी थी। लेकिन उस अस्पताल के डॉक्टर ने सिर्फ टारगेट पूरा करने के लिए, केवल पैसे के लिए मेरा हिप जॉयंट काटकर अलग कर, उसकी जगह घटिया इम्प्लांट लगाकर मुझे बर्बाद कर दिया। डॉक्टर होते हुए भी उस दिन वह हिपोक्रेटिज की शपथ भूल गए थे। सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है कि रोज अपने पेशे में लगे डॉक्टर कितनी बार हिपोक्रेटिज की शपथ भूलते होंगे। मानो अपने मुनाफे के लिए गैरजरूरी सर्जरी कर देना ही कम बड़ा अपराध न हो, अपना झूठ छिपाने के लिए अस्पताल प्रबंधन ने मुझे झूठी रिपोर्ट सौंपकर और भी बड़ा अपराध किया। चूंकि मैं डॉक्टर रह चुकी हूं, इसलिए उनका झूठ पकड़ पाने में सफल हुई। जबकि रोज असंख्य लोग चिकित्सा की दुनिया में व्याप्त इस फर्जीवाड़े का शिकार होते होंगे।
उस व्यक्तिगत त्रासदी के आठ महीने से ज्यादा हो गए, आज भी मेरे लिए वह दु:स्वप्न सरीखा है। मैं पहले की तरह स्वस्थ और स्वाभाविक जीवन में नहीं लौट पाई। मैं वर्कआउट नहीं कर पाती। ऐसे में, कितने दिन स्वस्थ रह पाऊंगी, इसकी गारंटी नहीं है, क्योंकि इससे आने वाले दिनों में मुझमें डायबिटीज और ब्लड प्रेशर की जटिलताएं बढ़ जाएंगी। जिस भी दिन यह इम्प्लांट टूट जाएगा, उस दिन व्हील चेयर के अलावा मेरे पास चलने का कोई और विकल्प नहीं रह जाएगा।
चिकित्सा के क्षेत्र में व्याप्त यह दुष्प्रवृत्ति हालांकि पहले भी मुझे चिंतित, विचलित करती थी। पर व्यक्तिगत अनुभव के बाद मेरी चिंता कहीं और बढ़ गई है, जिसमें मेरे अपने जीवन की चिंता भी शामिल है।
कुछेक डॉक्टरों की कारस्तानियों को देखते हुए अब चिकित्सकों पर मेरा भरोसा पहले की तरह नहीं रहा। कॉरपोरेट संस्कृति ने चिकित्सा के पवित्र पेशे को जैसे मुनाफे के व्यापार में बदल दिया है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब मरीजों की मृत्यु हो जाने के बावजूद उनके परिजनों से ज्यादा पैसे लेने के लिए शव को वेंटिलेटर से नहीं हटाया जाता। ऐसे भी उदाहरण हैं, जब पैसा न होने पर शवों को अस्पतालों से नहीं ले जाने दिया जाता। डॉक्टर पिता के सान्निध्य में बड़े होते हुए मैंने कभी सोचा नहीं था कि इस पेशे का यह हश्र होगा।तस्लीमा नसरीन
साभार अमर उजाला
