इस बार तो गर्मी ने हद कर दी..

इस बार तो गर्मी ने हद कर दी..

 

मौसम में बदलाव से उतनी परेशानी नहीं होती जितनी कि ऋतु-चक्र में आये बदलाव से होने लगी है। अब तो बारह महीने लोगों से हम यह कहते सुन सकते हैं- इस बार तो गर्मी ने हद कर दी... ऐसी गर्मी तो मैंने कभी नहीं झेली। बरसात आई तो... इस बार की बरसात ने तो हाहाकार मचवा दिया... जिधर देखो पानी ही पानी। इसी तरह जाड़ा आया... ऐसा जाड़ा कि हड्डियां हिलाकर रख दीं। बारह महीने ऋतुओं के बदलाव ने सभी को परेशान कर दिया है। ऋतु परिवर्तन का यह रूप पिछले तीस सालों से हम देख और झेल रहे हैं। पिछले साल जून में उत्तर भारत सहित देश के तकरीबन सभी हिस्सों में बेहाल कर देने वाली गर्मी पड़ी। दिल्ली में पारा जब 48 डिग्री सेंटीग्रेड से ऊपर पहुंचा तो लोगों पर ही इसका असर नहीं दिखा बल्कि पशु-पक्षी भी हलकान दिखे। इस साल राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली सहित तमाम प्रदेशों में कड़ाके की ठंड ने सबको बेहाल कर दिया। लेकिन इस फरवरी में जिस तरह दिल्ली सहित उत्तर भारत में तापमान सामान्य से ऊपर जाने लगा है, गर्मी की भयंकरता का अनुमान लगाया जा सकता है। मौसम वैज्ञानिक भी कह रहे हैं कि इस बार प्रचंड गर्मी पड़ सकती है।

आज से 40-50 साल पहले के मौसम की जानकारी रखने वाले और लोगों की मौसम का मजा लेते जिसने देखा होगा, वह जानता है कि तब भी दिल्ली, लखनऊ, इलाहाबाद, पटना और कानपुर में ऐसा ही मौसम हुआ करता था। लेकिन लोग तब मौसम के असर को लेकर हो-हल्ला नहीं मचाते थे। मुझे याद है मेरे बाबा बंडी और धोती पहनते थे और नंगे पैर ही चलते थे। चाहे जो मौसम हो। हम लोग जब ठंड की बात करते तो कहते-बचवा! जाड़े के दिन हैं ठंड नहीं तो क्या गर्मी लगेगी।’ धीरे-धीरे शरीर को ऋतु-अनुकूल ढालना शुरू कर दिया। आज भी किसी भी मौसम से परेशानी नहीं होती। दरअसल मौसम हमारे अनुकूल नहीं हो सकता बल्कि हमें ही उसके अनुकूल बनना चाहिए।

बदलते ऋतु-चक्र की वजह से दिक्कतें बढ़ी हैं लेकिन इन समस्याओं का सामना कैसे करना चाहिए इस तरफ हम गौर नहीं करते। दूसरी तरफ महानगरों और शहरों में लोगों के अंदर सहनशीलता सुख-सुविधाओं के कारण बहुत कम होती जा रही है। चंद लोग ही होंगे जो मौसम का मजा उठाने के लिए खुद को तैयार रखते होंगे। संपन्न परिवारों के लोग सुख-सुविधाओं में जीने के आदी हो गए हैं। वहीं मध्यम वर्गीय, निम्न मध्यम वर्गीय और निम्न वर्गीय परिवार बारहों महीने अपनी सहनशीलता बढ़ाने के बजाय बदलते मौसम अनुकूल साधन-सुविधाएं जुटाने में ही लगे रहते हैं। ऐसे में उनके बारे में सोचिए जिनके पास रहने का कोई ठिकाना नहीं है। वे शीत की रात कैसे काटते होंगे और बेतहाशा बढ़ी गर्मी काे सहन कैसे करते होंगे। वे क्या कभी सरकार या किसी और से अपनी दुर्दशा बताने जाते हैं?

गांवों में भी लोग ऋतु-चक्र के बदलाव का सामना करने में हाय-तौबा मचाने लगे हैं। फिर भी वे भयंकर ठंड के आतंक से घबराते नहीं। अलाव जलाकर ठंड का सामना करते हैं। असल में मौसम का रोना वही रोता है जो मौसम का मजा लेने के लिए तैयार नहीं होता। भूल जाते हैं कि हर मौसम का महत्व है। जाड़ा यदि न पड़े तो रबी की फसल नहीं हो सकती। बरसात न हो जो खरीफ की फसल तैयार नहीं हो सकती है। बिना मौसम बदलाव के धरती पर न तो वनस्पति रह सकती है और न जीव-जंतु। दुनिया में बदलाव कई स्तरों पर आये हैं। अब मौसम विज्ञानी मौसम का पूर्वानुमान कई महीने पहले बता देते हैं। ऐसे यंत्र विकसित कर लिए गए कि मौसम की जानकारी पहले से मिल जाती है। अनुमान गलत भी हो सकते हैं। फिर भी काफी कुछ सटीक उतरने लगा है। ऐसे में हम यदि मौसम को लेकर रोना न रोएं बल्कि उसका सामना करते हुए आनंद लें, तो परेशानी कम महसूस होगी।

ऋतुओं में असामान्य बदलावों ने हमें सावधान रहने के लिए खुद में बदलाव करने की जरूरत बताई है। मौसम में पिछले 30-40 वर्षों से कुछ अधिक बदलाव सारी दुनिया में महसूस किया जा रहा है। ग्लोबल वार्मिंग और सुनामी का कहर ही नहीं ग्लेशियरों के पिघलने से बाढ़ के बढ़ते खतरे का अहसास आंतकित-अचंभित करने वाला है। ग्रीन हाउस गैसों से बढ़ते प्रदूषण के मद्देनजर कई दूसरी समस्याएं भी पैदा होने लगी हैं। इससे दुनिया में मौसमी आतंक की छाया देखने को मिलने लगी है। अमेरिका जैसे देश में बर्फीले तूफान ने पिछले वर्षों में जो कहर ढहाया, उसे वहां के लोग शायद कभी न भुला पाएं। ऐसे ही भारत में पिछले वर्षों में उत्तराखंड, बिहार और तमिलनाडु में आई बाढ़ और बेमौसम बरसात ने लोगों को हलकानी में डाल दिया। दरअसल, मौसम में उतना बदलाव नहीं आया है जितना कि हमारी जीवनशैली में। मौसम में थोड़ा भी बदलाव आया कि हम परेशान होने लगते हैं। शायद ही कभी हो कि सहजता के साथ कुदरत के स्वभाव का हम स्वागत करें।

शहर बड़े शहर बनते जा रहे हैं और कस्बे श्ाहर। लोग रोजगार के लिए नगरों और महानगरों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर हैं, लेकिन यहां आकर अभावों भरी जिंदगी जीते हैं। मौसम की मार ऐसे लोगों को हलकान ही नहीं करती बल्कि मौत का कारण बन जाती है। आज जितने लोग हर साल ठंडक में दिल्ली में मरते हैं उतने ही बड़े राज्य बिहार में भी। इसका मतलब है, मौसम के मुताबिक जिंदगी बसर करना सबके वश की बात नहीं रह गई है, लेकिन यदि सहनशक्ति बढ़ाएं तो कुछ हद तक मौसम की मार झेल सकते हैं

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