देश का क्या दे रहे हैं, मुफ्त में लेने के लिए खड़े हैं कतार में ?

देश का क्या दे रहे हैं, मुफ्त में लेने के लिए खड़े हैं कतार में ?
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 स्वतंत्रता शब्द सुनकर मन में सर्वप्रथम बंधनों से मुक्ति का भाव आता है। इस स्थिति में कोई बंधन नहीं रहते और प्राणी को स्वाधीनता की अनुभूति होती है। हालांकि, स्वतंत्रता निष्क्रिय शून्यता की स्थिति नहीं है। स्वतंत्रता स्वच्छंदता भी नहीं है। वह दिशाहीन नहीं हो सकती। निरुद्देश्य स्वतंत्रता कोई अर्थ नहीं रखती।

 

थोड़ा गहराई में जाएं तो लगेगा कि स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ है अपने कार्य का दायित्व बोध। उस कार्य को दूसरों के जिम्मे न टालना। देश-काल और परिस्थितियों के अनुसार कर्तव्यों का पालन करना। अपने विवेक अनुसार बिना किसी दबाव के स्वतंत्र निर्णय लेना और उसके अनुसार कार्य करना। ऐसा न हुआ तो स्वतंत्रता बेलगाम हो जाएगी। वस्तुत:, स्वतंत्रता की संस्कृति का आह्वान है कि हम अपने कार्यों का सुचारु निर्वहन पूरी उत्कृष्टता के साथ करें। तभी सृष्टि में संगति बनेगी। तभी रचनात्मकता आएगी और तभी विकास एवं उन्नति का लक्ष्य भी सधेगा।

 

भारत ने 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त कर अब अमृतकाल में प्रवेश किया है। इस बीच भारत की संप्रभुता को कई बार चुनौतियां मिलीं और उन क्षणों में स्वतंत्रता के अनुभव को हम जानने-पहचानने की कोशिश करते रहे। इससे लगता है कि एक राजनीतिक इकाई के रूप में अन्य देशों द्वारा स्वीकृति और स्वयं अपनी पहचान को स्वतंत्र देश के रूप में स्थापित करना एक निरंतर चौकसी रखने वाली प्रक्रिया है। उसका स्थायित्व बहुत हद तक हमारे अपने दमखम और प्रयास पर निर्भर करता है। स्वतंत्रता सदैव आंतरिक एवं बाहरी परिस्थितियों के सापेक्ष ही संभव होती है और उसके लिए निरंतर प्रयास की अपेक्षा होती है। यह बात कई पड़ोसी देशों में और दूरदराज की तमाम जगहों पर चल रहे छोटे-बड़े संघर्षों के संदर्भ में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।

स्वतंत्रता पाने के लिए भारतीय समाज ने बड़ी कीमत अदा की थी। अंग्रेजों के साथ हुए संघर्ष में देश के कोने-कोने से हर भाषा, धर्म, जाति, क्षेत्र और विविध विचारधारा वाले लोग शामिल हुए थे। उनकी छोटी अस्मिताएं स्वतंत्रता के बड़े लक्ष्य में बाधक नहीं बन रही थीं और सबने बिना किसी भेदभाव के त्याग एवं बलिदान किया था। वंदे मातरम में मां-बेटे के उस रिश्ते की ध्वनि गूंजती है जिसके बीज हजारों साल पहले वेद में ऋषि की वाणी ‘माता भूमि: पुत्रोहं पृथिव्या:’ की निहित भावना में रोपित हैं। इसमें मां पहले आती है। वह पूर्व पक्ष है और उसकी संतति बाद में, जो उत्तर पक्ष है। पुत्र तो जन्म से ही मातृ ऋण से बंधा होता है। यह उस राष्ट्र राज्य (नेशन स्टेट) के मसौदे से उलट है जो कुछ लोग या समुदाय मिलकर अपने उद्देश्य के लिए बनाते हैं। इस व्यवस्था में राष्ट्र या देश बाद में आता है और व्यक्ति पहले। इस सोच में राष्ट्र या देश व्यक्ति या समुदाय के लिए एक संसाधन या उपाय बन जाता है, उसका कोई जैविक रिश्ता संकल्पित नहीं होता। उसकी सत्ता उसकी उपयोगिता पर टिकी होती है। स्पष्ट है कि भारतीय दर्शन की दृष्टि इस स्तर पर विशिष्ट है।

 

औपनिवेशिक प्रभाव के चलते भी स्वतंत्रता को लेकर अपने दायित्व के बारे में कुछ भ्रम फैले हैं। हम अधिकार की भाषा अधिक जानते हैं। संविधान में नागरिकों को दी गई स्वतंत्रताओं को तो याद रखते हैं, किंतु कर्तव्य भूलते जा रहे हैं। देश हमें क्या दे यह तो याद रहता है, किंतु हम देश को क्या दें उसे विस्मृत किया जा रहा है। वर्तमान काल भारतीय समाज के लिए चुनौतियों से भरा हुआ है और पथ-प्रदर्शन के पारंपरिक स्रोत सूख रहे हैं। विचार और कर्म के प्रदूषण का खतरा भी बढ़ रहा है। नैतिकता और स्वाभाविक कर्तव्य को छोड़ लोग स्वार्थ, लोभ और मुफ्तखोरी में प्रवृत्त हो रहे हैं। यह परिस्थिति निजी जीवन और समाज की प्रगति से जुड़ी गतिविधियों को बाधित कर रही है। इन सबके चलते नकारात्मकता बढ़ रही है। हम स्वतंत्रता का सतही अर्थ लगाकर अपने लिए छूट पाने के अवसर बनाने में लगे हुए हैं। लोग अपने हित के लिए रक्षा कवच के रूप में स्वतंत्रता का उपयोग करने लगे हैं।

इस प्रसंग में देश के श्रेष्ठतम प्रतीक के रूप में स्वीकृत भारत के झंडे को स्मरण करना प्रासंगिक होगा जो देश की प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है। इसमें सबसे ऊपर की पट्टी केसरिया रंग की है जो देश की शक्ति और साहस को दर्शाती है। बीच की धवल श्वेत पट्टी में सुंदर धर्म-चक्र बना है। यह शांति और सत्य की अभिव्यक्ति है। नीचे हरे रंग की पट्टी उर्वरता, वृद्धि और पवित्रता को व्यक्त करती है। उल्लेखनीय है कि शांति और सत्य मध्य में हैं और उसके केंद्र में धर्म चक्र है। इसी पर शेष टिका हुआ है। बल की प्रतीति कराने वाली शक्ति हो या साहस या फिर समृद्धि, उत्पादकता और पवित्रता, सबके लिए धर्म ही प्राथमिक महत्व का है।

भारतीय समाज का स्वभाव और उसकी जीवन दृष्टि मूलतः धर्म से अनुप्राणित है। उसमें समष्टि चैतन्य के अभिनंदन का भाव निहित है। यहां हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जीवन का स्पंदन एक दूसरे से जुड़कर ही संभव होता है, क्योंकि हम जिस सृष्टि के अभिन्न अंग हैं उसमें कुछ भी अकेला, निरपेक्ष और पूर्णतः स्वतंत्र नहीं है। सब एक दूसरे से जुड़कर ही अर्थवान होते हैं। हमारे विचार, शब्द और काम मिलजुल कर जिन रिश्तों का संगीत रचते हैं, उसे लगातार संजोने और संवारने की जरूरत होती है।

संसदीय लोकतंत्र की राह पर चलते हुए देश ने कई पड़ाव पार किए हैं। अब तक अलग-अलग विचारधारा वाले दलों को सरकार बनाने का अवसर मिला है। कुलीन वर्ग का वर्चस्व टूटता दिख रहा है। समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों को राजनीति में भाग लेने का अवसर मिला है। इस सबके बावजूद धनबल और बाहुबल की भूमिका बढ़ती गई है। साथ ही आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों की बढ़ती राजनीतिक पैठ नीति-निर्माण और कार्यान्वयन में जनहित को हाशिये पर धकेल देती है। इस बीच, आशा की किरण भारत की नई पीढ़ी है। भारत के युवाओं में कई तरह के विचार हिलोरे लेते रहते हैं। वे अक्सर उत्साह और प्रेरणा से सराबोर रहते हैं। आवश्यक है कि उनके लिए अच्छी शिक्षा की व्यवस्था हो जहां वे जीवन मूल्यों को ग्रहण कर सकें। वहां उत्साहवर्धक अनुभव और विमर्श का अवसर सृजित कर भारत का भविष्य संवारा जा सकता है।

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