तमाशबीन समाज और मरती हुई मनुष्यता

तमाशबीन समाज और मरती हुई मनुष्यता
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आज मनुष्यता की सबसे बड़ी त्रासदी यह नहीं है कि हादसे हो रहे हैं, बल्कि यह है कि हम उन हादसों को देखने का तरीका बदल चुके हैं। सड़क पर कोई गिरता है, तड़पता है, मदद के लिए पुकारता है और आसपास खड़े लोग सबसे पहले मोबाइल निकालते हैं। किसी की सांसें टूट रही होती हैं और हमारे हाथों में रिकॉर्ड बटन चल रहा होता है। यह दृश्य अब अपवाद नहीं रहा, बल्कि हमारी नई सामाजिक आदत बन चुका है।

कुछ दशक पहले जब कोई दुर्घटना होती थी तो लोग दौड़कर मदद के लिए आगे आते थे। आज वही जगह वीडियो शूटिंग का मंच बन जाती है। घायल को अस्पताल पहुंचाने से ज्यादा अहम हो गया है कि वीडियो साफ आए या नहीं। लोग यह सोचने लगते हैं कि यह क्लिप सोशल मीडिया पर डाली जाएगी, कितने लोग देखेंगे, कितने लाइक मिलेंगे। इस दौड़ में इंसान सामने पड़ा होता है और इंसानियत पीछे छूट जाती है।

बेंगलुरु की सड़क पर मदद के अभाव में दम तोड़ते व्यक्ति की घटना इसी मानसिकता की गवाही देती है। वहां भी लोग थे, गाड़ियां थीं, संसाधन थे, लेकिन संवेदना नहीं थी। किसी ने यह नहीं सोचा कि घायल को उठाकर अस्पताल पहुंचा दिया जाए। अगर कोई रुकता भी है तो पहले कैमरा ऑन करता है, फिर दूरी बनाकर खड़ा हो जाता है। मानो वह किसी दूसरे की पीड़ा का दर्शक हो, सहभागी नहीं।

यह वही समाज है जिसने कभी अंधेरी सड़क पर गूंजती ‘कोई है’ की पुकार को दिल से महसूस किया था। आज वही पुकार मोबाइल की स्क्रीन के पीछे दब जाती है। हम हादसे को घटना नहीं, कंटेंट मानने लगे हैं। यही वह मोड़ है जहां से मनुष्यता का पतन शुरू होता है।

सबसे खतरनाक बात यह है कि अब यह सब हमें गलत भी नहीं लगता। घायल को छोड़कर वीडियो बनाना, चीखती महिला को नजरअंदाज करना, यह सब सामान्य व्यवहार की तरह स्वीकार किया जाने लगा है। धीरे धीरे हमारे भीतर करुणा की जगह जिज्ञासा और संवेदना की जगह सनसनी लेती जा रही है।

दुनिया के बड़े युद्ध हों या शहर की सड़क पर हुआ छोटा सा हादसा, दोनों जगह एक ही सवाल खड़ा होता है। क्या हम केवल देखने वाले बनकर रह गए हैं। क्या हम इंसान से ज्यादा दर्शक बन चुके हैं। जब हम किसी की मौत को अपने कैमरे में कैद करते हैं लेकिन उसे रोकने की कोशिश नहीं करते, तब असल में हम अपने भीतर की मनुष्यता को कैद कर रहे होते हैं।

मनुष्यता का मतलब यह नहीं है कि हम हर समस्या का समाधान कर दें। कई बार सिर्फ रुक जाना, किसी को सहारा देना, एंबुलेंस बुला देना ही काफी होता है। लेकिन इसके लिए साहस चाहिए। वही साहस जो हमें मोबाइल जेब में रखने और इंसान के पास झुकने के लिए मजबूर करे।

आज जरूरत इस बात की है कि हम खुद से यह सवाल पूछें कि हम किस तरह का समाज बनते जा रहे हैं। ऐसा समाज जो हादसों पर व्यूज गिनता है या ऐसा समाज जो जिंदगियां बचाता है। यह फैसला किसी सरकार या व्यवस्था को नहीं, हमें खुद को करना है।

जब अगली बार सड़क पर कोई गिरा हुआ दिखे और कोई मदद के लिए पुकारे, तो हमारे भीतर से यह आवाज उठनी चाहिए कि हां, मैं हूं। अगर हम यह कहने की ताकत खो देंगे, तो फिर तकनीक, विकास और आधुनिकता सब व्यर्थ हो जाएंगे। क्योंकि बिना मनुष्यता के कोई भी समाज जिंदा नहीं रह सकता।

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