सुप्रीम कोर्ट का बड़ा कदम –: धर्मांतरण विरोधी कानूनों पर नोटिस, 8 राज्यों के लॉ एक साथ जांच के दायरे में; व्यक्तिगत आस्था पर सरकारी दखल को चुनौती

नई दिल्ली, भारत के संवैधानिक मूल्यों को दांव पर लगाने वाले 'धर्मांतरण विरोधी कानूनों' पर सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर कड़ा रुख अपनाया है। जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की बेंच ने पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) की याचिका पर सुनवाई करते हुए राजस्थान सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। बेंच ने निर्देश दिए हैं कि इस याचिका को उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़, हरियाणा और झारखंड के समान कानूनों को चुनौती देने वाली लंबित याचिकाओं के साथ टैग किया जाए। अब सुप्रीम कोर्ट सभी मामलों पर एक साथ सुनवाई करेगा, जो इन विवादास्पद कानूनों की वैधता पर बड़ा सवाल खड़ा कर सकता है।
याचिका का आधार: आस्था पर 'अनुचित नियंत्रण', संविधान का उल्लंघन
PUCL की याचिका में दावा किया गया है कि राजस्थान का 'प्रोहिबिशन ऑफ अनलॉफुल कन्वर्जन ऑफ रिलिजन एक्ट, 2025' व्यक्तिगत आस्था पर सरकारी हस्तक्षेप को बढ़ावा देता है। यह कानून अंतर-धार्मिक विवाहों (इंटर-फेथ मैरिज) को अपराध की श्रेणी में डालता है, अधिकारियों को पूर्व सूचना अनिवार्य बनाता है और पुलिस को अनावश्यक जांच के व्यापक अधिकार देता है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह कानून सुप्रीम कोर्ट के पूर्व फैसलों, जैसे 'शिरूर मठ केस' (1954) और 'स्टैनिस्लॉस बनाम माध्या प्रदेश' (1977), से परे जाकर विधायिका का क्षेत्राधिकार लांघता है। साथ ही, यह अनुच्छेद 25 (धार्मिक स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 21 (व्यक्तिगत स्वतंत्रता) का स्पष्ट उल्लंघन करता है।
"यह कानून न केवल धार्मिक रूपांतरण को नियंत्रित करता है, बल्कि प्रेम और विवाह जैसी निजी पसंद पर भी सेंसरशिप लगाता है," याचिका में कहा गया। विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसे कानून अल्पसंख्यक समुदायों पर दबाव डालने का हथियार बन सकते हैं, जो भारत की धर्मनिरपेक्षता को कमजोर करते हैं।
पहले से लंबित तीन याचिकाएं: एकजुट हो रही चुनौतियां
यह पहली बार नहीं है जब इन कानूनों पर सवाल उठे हैं। इससे पहले तीन अन्य प्रमुख याचिकाओं में भी इन्हें चुनौती दी जा चुकी है:
दशरथ कुमार हिनुनिया बनाम राजस्थान सरकार: धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन पर फोकस।
एम. हुजैफा बनाम राजस्थान: जबरन धर्मांतरण के आरोपों की आड़ में उत्पीड़न का मुद्दा।
जयपुर कैथोलिक वेलफेयर सोसायटी: ईसाई समुदाय पर असर।
इन सभी पर सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही राज्य सरकारों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा था। आज की सुनवाई में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और अतिरिक्त महाधिवक्ता शिव मंगल शर्मा ने पेश होकर देशभर की लंबित याचिकाओं, ट्रांसफर पिटिशन्स, SLP और फ्रीडम ऑफ रिलिजन/एंटी-कन्वर्जन लॉज को चुनौती देने वाली रिट याचिकाओं की विस्तृत सूची कोर्ट को सौंपी। कोर्ट ने सभी मामलों को एक साथ क्लब करने का आदेश दिया, ताकि एकसमान फैसला सुनाया जा सके।
पृष्ठभूमि: 8 राज्यों में 'लव जिहाद' जैसे कानूनों का जाल
भारत में वर्तमान में कम से कम 10 राज्य ऐसे हैं जहां धर्मांतरण विरोधी कानून लागू हैं, जिन्हें अक्सर 'लव जिहाद' रोकने के नाम पर लाया गया। राजस्थान का नया कानून सितंबर 2025 में लागू हुआ, जो कठोर सजाएं (5-10 साल की कैद) और जुर्माना निर्धारित करता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के इसी तरह के कानून पर भी सवाल उठाए थे, कहते हुए कि "भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है।" इसके अलावा, कोर्ट ने 90 ईसाइयों के खिलाफ झूठे केस खारिज करते हुए इन कानूनों की मनमानी पर चिंता जताई थी।
संभावित प्रभाव: अल्पसंख्यक अधिकारों पर बड़ा फैसला?
यह सुनवाई भारत की धार्मिक स्वतंत्रता पर एक मील का पत्थर साबित हो सकती है। मानवाधिकार संगठनों ने इसे सकारात्मक कदम बताया, लेकिन राज्य सरकारें इन कानूनों को 'जबरन धर्मांतरण' रोकने का जरूरी उपकरण मानती हैं। अगली सुनवाई की तारीख अभी तय नहीं हुई है, लेकिन विशेषज्ञों का अनुमान है कि कोर्ट इन कानूनों की संवैधानिक वैधता पर गहन बहस करेगा।
कानूनी विशेषज्ञों से बातचीत में कहा गया, "यह केवल कानून का मामला नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा – व्यक्तिगत विश्वास की रक्षा – का सवाल है।" यदि कोर्ट इन कानूनों को असंवैधानिक ठहराता है, तो कई राज्यों में बदलाव आ सकता है।
