पंचायत चुनावों पर लगी रोक से गांवों की सियासत में मचा सन्नाटा, दावेदारों के सपने अधर में लटके

भीलवाड़ा हलचल
भीलवाड़ा. पंचायत चुनावों पर निर्वाचन आयोग के एसआईआर आदेश के बाद गांवों की राजनीति जैसे ठहर सी गई है। महीनों से जोश में तैयारी कर रहे सरपंच और वार्ड पंच पद के दावेदार अब मायूसी में डूबे नजर आ रहे हैं। गांव-गांव में जहां पहले चुनावी हलचल थी, अब वहां हथाईयों में चर्चा का विषय सिर्फ यही है कि आखिर चुनाव होंगे कब? फरवरी 2026 के बाद की संभावित तारीखों को लेकर अब तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं।
अक्टूबर में पंचायतों का कार्यकाल खत्म होते ही दावेदारों ने चुनाव को एक उत्सव की तरह लेने की तैयारी की थी। गांवों में हलवे-पूरी के कार्यक्रम से लेकर चौपालों पर मान-मनुहार का दौर शुरू हो गया था। हर दावेदार अपने समर्थकों के साथ वोटर लिस्ट खंगाल रहा था, रिश्तेदारी निभाने में जुटा था और पुराने मतभेद भुलाने की कोशिश कर रहा था। लेकिन एसआईआर के आदेश ने सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया।
बनेड़ा , हलेंड,कारोई बागोर भगवानपुरा, सहित कई ग्राम पंचायतों में सरपंच बनने का सपना देख रहे दावेदारों ने तो बाकायदा अपने ‘इलेक्शन ऑफिस’ तक सजा रखे थे। कई जगह तो दीवारों पर नारे लिखे जा चुके थे और प्रचार सामग्री भी तैयार कर ली गई थी। लेकिन अब उन कार्यालयों में सन्नाटा पसरा है।
दावेदार बोले - “सब तैयारी धरी की धरी रह गई”**
सरपंच पद के दावेदार रामलाल ने कहा कि “हमने तो गांव-गांव जाकर जनसंपर्क शुरू कर दिया था। बैनर-पोस्टर तक छपवा लिए थे, लेकिन चुनाव टलने से सब बेकार चला गया। अब फिर से तैयारी करनी पड़ेगी, और खर्च भी बढ़ेगा।”
प्रत्याशी कमला ने बताया कि “हमारे गांव में तो महिलाएं भी उत्साहित थीं। रोज शाम को बैठकें होती थीं। अब सबके चेहरे लटके हुए हैं।”
दावेदार भंवरलाल ने कहा, “जो लोग हमारे साथ थे, अब मन बदल सकते हैं। चुनाव में देर का सीधा असर वोट बैंक पर पड़ेगा।”
खर्च बढ़ने की चिंता, वोट बैंक पर सेंध का डर
कई प्रत्याशी बताते हैं कि पिछले तीन महीनों में उन्होंने प्रचार और सामाजिक कार्यक्रमों पर लाखों रुपये खर्च कर दिए। अब फरवरी के बाद चुनाव होने से ये सारा खर्च व्यर्थ चला गया है। सबसे बड़ी परेशानी अब ये है कि तारीख घोषित होने के बाद उन्हें नए सिरे से पूरी व्यवस्था करनी होगी।
गांवों में चर्चा का नया मुद्दा - ‘चुनाव कब होंगे?
कस्बों और गांवों की चौपालों में अब चर्चा का केंद्र ‘चुनाव की नई तारीख’ बन गया है। बुजुर्ग कहते हैं कि “पहले तो चुनावों का जोश था, अब सब सन्नाटा है।” युवाओं में भी निराशा है क्योंकि वे भी अपने-अपने प्रत्याशियों के प्रचार में सक्रिय थे।
हालांकि कुछ राजनीतिक जानकारों का मानना है कि यह रुकावट उम्मीदवारों को अपने समीकरण और मजबूत करने का मौका दे सकती है। पर दावेदारों का कहना है कि “गांव की राजनीति में वक्त बहुत मायने रखता है, ज्यादा इंतजार सब कुछ बिगाड़ देता है।”
इस तरह पंचायत चुनावों पर लगी रोक ने ग्रामीण राजनीति की चाल ही बदल दी है। अब सबकी निगाहें सिर्फ एक सवाल पर टिकी हैं – आखिर चुनावी रण कब सजेगा?
