सेवा की जगह सत्ता की चाह और मरीजों की जगह कुर्सियों की दौड़

सेवा की जगह सत्ता की चाह और मरीजों की जगह कुर्सियों की दौड़
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राजस्थान के अस्पतालों में अब इलाज से ज्यादा आकर्षण प्रशासनिक कुर्सियों का हो गया है। यहां सीनियर डॉक्टरों का ध्यान मरीजों की जगह अब पावरफुल पोस्ट पर टिक गया है। कोई खरीद विभाग देख रहा है, कोई फाइनेंस तो कोई मैनपावर या बिल्डिंग टेनेंस संभाल रहा है। आलम यह है कि प्रदेश में दर्जनों डॉक्टर इलाज छोड़ प्रशासनिक कामों में लगे हैं।

प्रदेश के सबेस बड़े अकेले एसएमएस कॉलेज में 50 डॉक्टर ऐसे हैं जो डॉक्टरी के साथसाथ विभागीय खरीद, भवन टेनेंस,एचआर, सर्विस रिकॉर्ड, मेडिकल स्टोर, वर्कशॉप, बायोमेडिकल और इन्फ्रास्ट्रक्चर डिवीजन जैसे गैरचिकित्सकीय कामों में लगे हैं। इनमें 25 डॉक्टर तो एसएमएस में ही हैं। ज्यादा डिमांड खरीद-मैनपावर से जुड़े कामों की रहती है। शेष डॉक्टर कॉलेज से संबद्ध 9 अन्य अस्पतालों के हैं। इनमें कई ऐसे भी हैं जो सर्जरी, मेडिसिन या ऑर्थोपेडिक जैसे विभागों में पदस्थ हैं, लेकिन ओपीडी से ज्यादा वक्त ऑफिस और बैठक में दे रहे हैं।

डॉक्टरों की इस प्रशासनिक दौड़ का सबसे बड़ा खामियाजा मरीज भुगत रहे हैं। ओपीडी में मरीजों को घंटों इंतजार करना पड़ता है। कई विभागों में सीनियर डॉक्टरों की मौजूदगी सिर्फ नाम भर रह गई है। गंभीर मरीजों की सर्जरी या रेफरल केस तक टल रहे हैं, जिससे इलाज की गुणवत्ता पर सीधा असर पड़ रहा है।

सबसे ज्यादा मांग खरीद और मैनपावर विभागों की है, क्योंकि इन पदों के साथ अधिकार, स्टाफ, वाहन और बजट की सुविधाएं जुड़ी रहती हैं। कई बार बाहरी एजेंसियों और खरीद प्रक्रियाओं में अप्रत्यक्ष लाभ की संभावना भी बताई जाती है। यही वजह है कि डॉक्टर इलाज से ज्यादा फाइलों और टेंडरों के पीछे दौड़ रहे हैं।

इन पदों पर नियुक्ति के लिए कोई तय प्रक्रिया नहीं है। ज्यादातर पोस्ट सिफारिश और संपर्क के दम पर मिलती हैं। जिसकी जितनी ऊंची पहुंच, उसे उतना बड़ा पद और बजट नियंत्रण मिल जाता है। प्रभावशाली कुर्सियों पर बैठने की इस चाह ने मेडिकल सेवाओं की जड़ें कमजोर कर दी हैं।

डॉक्टरों की पहले से ही कमी है, फिर भी कई सीनियर चिकित्सक प्रशासनिक कामों में समय बर्बाद कर रहे हैं। इससे अस्पतालों में मरीजों की संख्या बढ़ रही है, पर डॉक्टरों की उपस्थिति घट रही है। स्थिति यह है कि कई डॉक्टर एक साथ दो या तीन पद संभाल रहे हैं—कहीं विभागाध्यक्ष हैं तो कहीं अतिरिक्त प्राचार्य या अस्पताल के प्रशासनिक अधिकारी।

राज्य के अन्य मेडिकल कॉलेजों में भी यही हाल है। फील्ड में डॉक्टरों की कमी का रोना रोया जाता है, लेकिन दफ्तरों में डॉक्टरी नहीं, फाइलों की भीड़ बढ़ रही है। स्वास्थ्य विभाग अब ऐसे मामलों की समीक्षा की तैयारी कर रहा है ताकि डॉक्टरों का ध्यान फिर से मरीजों की ओर लौट सके।

सेवा की जगह सत्ता की चाह और मरीजों की जगह कुर्सियों की दौड़—यही अब राजस्थान के सबसे बड़े मेडिकल कॉलेज की हकीकत बनती जा रही है।

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