पुलिस की सख्ती , खनिज विभाग की मिलीभगत ने बढ़ाई बजरी माफियाओं की कमाई !

भीलवाड़ा रायला ( विजय /लकी शर्मा)।जिले के कई क्षेत्र इन दिनों एक गंभीर समस्या से जूझ रहा है। यहां बजरी माफिया न केवल सक्रिय हैं, बल्कि इतने बेखौफ भी हो चुके हैं कि दिनदहाड़े रेत से भरे ट्रैक्टर-ट्रॉलियों का संचालन करते हुए खुलेआम नियमों की धज्जियां उड़ा रहे हैं। हालात ऐसे बन गए हैं कि अब यह इलाका मानो इन माफियाओं के लिए पूरी तरह ‘सुरक्षित ज़ोन’ बन चुका है, पुलिस अधीक्षक की सख्ती के कारण बजरी पर शहर में तो रोक लगी हे मगर ग्रामीण क्षेत्रो में ये धंधा मंदा नहीं पड़ा उलटे आम लोगो को बजरी पर अधिक राशि चुका नई पद रही हे .
ग्रामीण इलाकों में बेरोकटोक जारी है बजरी का काला धंधा, बढ़े रेटों से त्रस्त हैं आम लोग
पुलिस अधीक्षक के निर्देशों के चलते भीलवाड़ा शहर में बजरी पर आंशिक रोक लगी है, लेकिन रायला, मांडल, मंगरोप, मांडलगढ़, बागोर जैसे ग्रामीण क्षेत्रों में यह धंधा बेरोकटोक जारी है।
स्थानीय लोगों के अनुसार:“पहले जो डंपर 18 हजार में आता था, अब वही 22 हजार तक पहुंच गया है। ट्रॉली पर 500 रुपये अधिक वसूले जा रहे हैं। सख्ती सिर्फ दिखावा है।”
“यहां ट्रॉली बिना नंबर प्लेट के चलती हैं। ओवरलोड होती हैं। पुलिस सब देखती है, मगर आंखें बंद कर रखी हैं।” – स्थानीय निवासी (सोहन लाल )
अधिकारियों की निष्क्रियता पर सवाल
ग्रामीणों का आरोप है कि पुलिस, प्रशासन और पंचायत – सभी को सब पता है, मगर कोई कार्रवाई नहीं करता। रिपोर्टिंग के मुताबिक रायला के अलावा मांडल, बागोर, मंगरोप क्षेत्रों में भी अवैध खनन चरम पर है।
कहीं एफआईआर नहीं, न ही ट्रॉली की जब्ती — प्रशासनिक ढिलाई से माफियाओं का मनोबल बढ़ता जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश हवा में
सुप्रीम कोर्ट ने बजरी खनन, परिवहन और भंडारण को लेकर स्पष्ट आदेश दिए हैं। लेकिन रायला में ट्रैक्टर-ट्रॉली बिना नंबर प्लेट, ओवरलोड और अनियंत्रित तरीके से सड़कों पर दौड़ रही हैं।
इनमें से कुछ वाहन दुर्घटनाओं का कारण भी बन चुके हैं, मगर जिम्मेदार अधिकारी मौन हैं।
गांवों में बजरी के ढेर, सबकुछ सामने है
राई, रामपुरा, अटलपुरा, इन्द्रपुरा जैसे गांवों में खुलेआम बजरी के ढेर देखे जा सकते हैं। यह स्पष्ट करता है कि बड़े स्तर पर अवैध स्टॉकिंग और खनन हो रहा है।
स्थानीय निवासियों का कहना है:
“कुछ प्रभावशाली लोग इस धंधे में शामिल हैं। राजनीतिक संबंध और अफसरों से मिलीभगत ही इनका बचाव कवच है।”
राजनीतिक संरक्षण की आशंका
जनप्रतिनिधियों की चुप्पी भी शक को बढ़ा रही है। ग्रामीणों का दावा है कि माफियाओं को राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ है। मीडिया रिपोर्ट या जनदबाव पर कभी-कभार औपचारिक कार्रवाई होती है, पर जड़ से कोई हल नहीं निकलता।
क्या प्रशासन की चुप्पी = सहमति?
यह सबसे बड़ा सवाल बन गया है।
“अगर आम आदमी देख रहा है तो पुलिस क्यों नहीं? ट्रॉली थाने के सामने से गुजरती है और कार्रवाई नहीं होती — क्या यह मौन स्वीकृति नहीं है?”
जनता का सब्र टूट रहा है
गांवों में जनाक्रोश पनप रहा है। लोगों का मानना है कि प्रशासन ने यदि जल्द कार्रवाई नहीं की, तो वे स्वयं आगे आकर विरोध करेंगे। इसका असर कानून-व्यवस्था पर भी पड़ सकता है।
सख्ती के बावजूद व्यापार जारी
पुलिस अधीक्षक की सख्ती के बावजूद, नीचे के स्तर पर कुछ अधिकारी माफियाओं को संरक्षण देते नजर आ रहे हैं। गांवों में बजरी महंगी होती जा रही है, जनता परेशान है, और माफिया मुनाफा कमा रहे हैं।अब जरूरत है ठोस कार्रवाई की, ताकि कानून का राज स्थापित हो सके।
