त्वरित टिप्पणी: भ्रष्टाचार की धारा में डूब रही शहर की नैया, बारिश खोल देती कुशासन की पोल

अभी तो मानसून का आगाज ही हुआ लेकिन एक तेज बारिश में ही जो मंजर भीलवाड़ा जैसे शहर की सड़कों पर दिखे उससे आने वाले दिनों में क्या होगा ये सोच कर ही हमारा मन भले बैचेन हो जाता हो पर उन ‘‘जिम्मेदारों’’ के चेहरो पर शायद शिकन तक नहीं आती होगी जो मानसून से पहले बड़े-बड़े दावे करते है कि इस बार बारिश का पानी नहीं भरेगा,सड़के गड्ढ़ो में नहीं जाएगी ओर तेज बारिश में भी बिजली आपूर्ति निर्बाध रहेगी। भीलवाड़ा में शनिवार को पहले ही चरण की बारिश ने ‘‘जिम्मेदारों’’ के इन सभी दावों का खोखलापन हमारे सामने उजागर कर दिया है। नाले उफान मारने से सड़के दरिया बन गई,सड़के गड्ढो में बदलने लगी ओर घंटो बिजली आपूर्ति बंद हो गई। इस बारिश ने उस भ्रष्ट सरकारी व्यवस्था को भी फिर बेनकाब किया है जिसके तहत हर वर्ष मानसून आने से पहले लाखो-करोड़ो रूपए तैयारियों के नाम पर कागजों में खर्च होते है। जब आसमान से मेघों की झमाझम होती है ओर गली ओर चौराहों की सड़कों पर समुंदर सा नजारा होता है तो यह सोचना पड़ता है कि आखिर लाखों-करोड़ो का खर्चा हमारे प्रशासन,नेताओं ओर नगरीय निकायों ने किस काम पर किया है। मानसून का समय हो या कोई राजनेताओं ओर लालफीताशाही का प्रतिबिंब बने अधिकारियों की बातों पर अब आमजन को भरोसा नहीं होता। जनता के पैसो की बर्बादी करने में कांग्रेस हो या भाजपा कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं लगता। जब कोई दल प्रतिपक्ष में होता है तो सत्तापक्ष पर मानसून प्रबंधन के नाम पर करोड़ो रूपए बर्बाद करने ओर कुव्यवस्थाओं का आरोप लगाता है लेकिन जब स्वयं सत्ता में आता है तो वहीं आरोप कभी सत्ताधारी रहने वाले उस पर लगाने लगते है। इस मामले में राजनेताओं ओर अधिकारियों की छवि आमजन के मन में ‘‘चौर-चौर मौसरे भाई’’ वाली हो चुकी है। बात भीलवाड़ा की ही करे तो यहां पिछले कुछ वर्षो में विधायक,सांसद से लेकर शहर के प्रथम नागरिक तक हर कुर्सी पर चेहरे बदल चुके है लेकिन नहीं बदले है तो इस शहर के हालात ओर अतंहीन पीड़ाओं का दौर। चुनावों से पहले भाषणों में सपने दिखाए जाते है कि एक मौका हमे दो हम शहर को स्वच्छ,सुंदर ओर सुरक्षित बना देंगे। पुराने शासन से त्रस्त वोटर कुछ अच्छा बदलाव आने की उम्मीद मन में संजोए इनको अवसर दे देता है। कुछ समय बीतने के बाद लगता है कि इनसे तो पहले वाले ही ठीक थे यानि कुर्सी पाने के लिए जुमलेबाजी खूब होती है लेकिन हालात सुधारने की इच्छाशक्ति किसी में नजर नहीं आती। शहर के व्यस्त मार्गो की दुर्दशा देख लगता ही नहीं कि इस शहर में सांसद,विधायक लेकर महापौर ओर पार्षद तक कोई जनप्रतिनिधि भी है। कहीं हरवर्ष की तरह लाइलाज बीमारी होकर अंडरब्रिज बारिश के पानी से अटे पड़े है तो कहीं टूटी सड़कों के साथ गड्ढों की भरमार होने से वाहन चालकों को सुरक्षित किधर से निकले ये समझ नहीं आता है। ऐसा लगता है कि हमारे नेता ओर जिम्मेदार अधिकारी यां तो नीचे देख कर नहीं चलते या फिर वह ‘‘गांधारी’’बन कर जीने लगे है। मामूली बारिश में नालों का गंदा पानी जिस तरह उफान मार सड़कों को दरिया मेे बदल देता है उसे देख लगता ही नहीं है कि बारिश से पहले उनकी सार-संभाल भी किसी ने की है जबकि दस्तावेज देखेंगे तो लाखों-करोड़ो रूपए इस नाम पर खर्च होना मिल जाएगा। ये सोच कर मन दहल उठता है कि एक-दो इंच बारिश में शहर समुंदर बन रहा है तो कभी आसमान से बादल फट पड़े तो कितनी जिंदगिया संकट में आ जाएगी। सत्तापक्ष हो या प्रतिपक्ष दोनों ही अपनी कथनी ओर करनी में जमीन आसमान का अंतर होने ओर एक ही थैली के चट्टे-बट्टे होने का संदेह होने से जनमत का विश्वास खो चुके है। ऐसा लगता है नेताओं ओर अफसरों को हमारी पीड़ाओं से कोई मतलब नहीं रह गया है वह जिम्मेदारी का मतलब शायद अपने ‘आकाओं’ को खुश रखना ही मानने लगे है।
निलेश कांठेड़
स्वतंत्र पत्रकार एवं विश्लेषक