वसूली का रिवाज़: जब रिश्वत ने ले लिया परंपरा का रूप

भारत बदल रहा है, डिजिटल हो रहा है, लेकिन व्यवस्था की जड़ों में बसी वसूली अब भी वैसी ही है। फर्क बस इतना है कि पहले यह चोरी-छिपे होती थी, अब यह “रिवाज़” बन गई है।
आज छोटे से छोटे काम में भी “सुविधा शुल्क” की मांग आम हो चुकी है। चाहे ठेकेदार का ठेका हो, पुलिस थाने का कोई काम या जीएसटी रजिस्ट्रेशन जैसी औपचारिकता — हर जगह ‘ऊपर तक पहुँचाने’ की संस्कृति ने ईमानदारी का गला घोंट रखा है।
डिजिटल इंडिया, मगर इंसान वही पुराने
नई कंपनी खोलने की प्रक्रिया अब पूरी तरह डिजिटल हो चुकी है। दस्तावेज़ ऑनलाइन अपलोड होते हैं, फाइलें स्वचालित रूप से आगे बढ़ती हैं। लेकिन जैसे ही जीएसटी नंबर की बारी आती है, एक “छोटा अफसर” फाइल देखने आता है। जांच के नाम पर वह मुस्कराते हुए कहता है — “थोड़ी सुविधा मिल जाए तो काम जल्दी हो जाएगा।”
यहीं से शुरू होती है उस व्यवस्था की असली परीक्षा, जहाँ तकनीक आधुनिक है, पर सोच अब भी पुराने ढर्रे पर अटकी है।
आंकड़े बताते हैं व्यवस्था की सच्चाई
कॉर्पोरेट अफेयर्स मंत्रालय के अनुसार, पिछले साल देश में 1.85 लाख से अधिक नई कंपनियां रजिस्टर हुईं। अगर इनमें से केवल दस फ़ीसदी लोगों से भी ‘सुविधा शुल्क’ लिया गया हो, तो हर महीने लगभग नौ करोड़ रुपये रिश्वत के रूप में बह रहे हैं। यानी अर्थव्यवस्था में एक ऐसा रिसाव, जो अदृश्य है, पर असर गहरा डाल रहा है।
घर-परिवारों में भी ‘लेन-देन संस्कृति’
वसूली का यह रोग सिर्फ सरकारी दफ्तरों तक सीमित नहीं रहा। यह हमारे घरों में भी पहुँच चुका है। संपत्ति के झगड़ों में चालाक रिश्तेदारों की चालें, परंपराओं की आड़ में फायदे का खेल, और रिश्तों के पीछे छिपा स्वार्थ — सब यह दिखाते हैं कि नैतिक गिरावट अब समाज की नसों में घुल चुकी है।
सोशल मीडिया पर दिखावे की होड़
आज का संभ्रांत वर्ग वसूली से उपजे वैभव को सफलता मानता है। सोशल मीडिया पर उनकी पार्टियों, गाड़ियों और यात्राओं का दिखावा समाज के लिए एक नया प्रलोभन बन गया है। मेहनत, ईमानदारी और सादगी अब पिछड़ेपन की निशानी मानी जाने लगी है।
कहां हैं सुधार के सूत्र?
नीति आयोग के बड़े एजेंडे में “डीप टेक्नोलॉजी” और “फ्री एंटरप्राइज” का ज़िक्र तो है, लेकिन पारदर्शिता और भ्रष्टाचार पर सन्नाटा है। जब तक व्यवस्था की रगों में बसा लालच खत्म नहीं होगा, तब तक देश की गाड़ी चाहे जितनी आधुनिक पटरियों पर दौड़े, उसकी दिशा सही नहीं होगी।
अब समाज को बदलना होगा अपना एल्गोरिदम
महादेवी वर्मा ने दशकों पहले पूछा था — “मशीनें तो हमने बहुत खूब बना लीं, इंसान अच्छे बनाए क्या?”
यह सवाल आज पहले से ज़्यादा प्रासंगिक है। तकनीक और विकास से ज़्यादा ज़रूरी है इंसानियत की पुनर्स्थापना। समाज को अपना नैतिक एल्गोरिदम बदलना ही होगा, वरना यह वसूली की महामारी हर ईमानदार कोशिश को निगल जाएगी।
जो लोग अब भी ईमानदारी की लौ जलाए हुए हैं, वही इस अंधेरे में उम्मीद की असली किरण हैं। सच्चा नेतृत्व, कर्मठता और नैतिक साहस — यही वह शक्तियाँ हैं जो इस “वसूली के रिवाज़” को तोड़ सकती हैं।
