मिट्टी से गढ़ी रोशनी — दीपावली की असली चमक हैं कुम्हार परिवार

भीलवाड़ा। दीपावली नज़दीक है और पूरा शहर रोशनी के रंग में रंगने को तैयार है। बाज़ारों में जहां एक ओर मशीनों से बने दीयों की भरमार है, वहीं दूसरी ओर कुछ परिवार ऐसे भी हैं, जो अब भी अपनी कला, परंपरा और आस्था से दीपावली की असली चमक गढ़ते हैं — कुम्हार परिवार।
सुबह की पहली किरण के साथ ही उनके आंगन में मिट्टी से जीवन की सुगंध उठने लगती है। कोई चाक पर बैठा मिट्टी को आकार दे रहा है, तो कोई हाथों में सनी मिट्टी से नन्हे दीपक गढ़ रहा है। देखते ही देखते साधारण मिट्टी लक्ष्मी-गणेश की आकृतियों वाले, फूलों की डिजाइन लिए रंग-बिरंगे दीयों में बदल जाती है। यही दीपक शाम को जब घर-आंगन में जलते हैं, तो केवल रोशनी ही नहीं, बल्कि एक संस्कृति की लौ भी जगमगाने लगती है।
परिवार की महिलाएं बड़े मनोयोग से इन दीयों को रंगती-सजाती हैं। बच्चे उन्हें धूप में सुखाते हैं ताकि त्यौहार से पहले हर दीपक तैयार हो सके। पुरुष मिट्टी गूंधने और चाक चलाने में जुटे रहते हैं। दीपावली से कुछ दिन पहले उनकी दिनचर्या और भी तेज़ हो जाती है — मानो हर हाथ में रोशनी बुनने की ललक हो।
हालांकि, इन दीयों की रोशनी जितनी सुंदर है, हक में मिलने वाली कीमत उतनी ही कम। बाजार में मशीन से बने सस्ते दीपकों की बाढ़ ने कुम्हारों की कमाई पर असर डाला है। फिर भी वे हिम्मत नहीं हारते। उनका कहना है — “हम रोशनी बेचते नहीं… बांटते हैं।”
इन कारीगरों की मेहनत दीपावली के हर दीये में झलकती है। जब एक-एक दीया घर के द्वार पर जलता है, तो उसमें केवल तेल और बाती नहीं होती, बल्कि किसी कुम्हार का पसीना, उम्मीद और परंपरा भी होती है।
