एक डॉलर की कीमत ₹86 के पार क्यों पहुंची, कब और कैसे बढ़ती-घटती है किसी मुद्रा की कीमत? जानें

एक डॉलर की कीमत ₹86 के पार क्यों पहुंची, कब और कैसे बढ़ती-घटती है किसी मुद्रा की कीमत? जानें
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अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव जीतने के बाद से ही डॉलर लगातार मजबूती के नए आयाम गढ़ रहा है। आलम यह है कि मौजूदा समय में डॉलर इतना ताकतवर हो चुका है कि दुनिया की हर बड़ी मुद्रा के मुकाबले इसका एक्सचेंज रेट यानी इसकी 'खरीद की दर' तेजी से बढ़ी है। रुपया भी इससे अछूता नहीं है। इसी सोमवार (13 जनवरी) को 1 डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत 86 के पार पहुंच गई।

ऐसे में यह जानना अहम है कि आखिर किसी मुद्रा की कीमत तय कैसे होती है? और बाकी मुद्राओं के मुकाबले उसकी कीमत में उतार-चढ़ाव आता क्यों है? डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया 86 का आंकड़ा पार कर गया, इसका मतलब क्या है? आइये जानते हैं...


कैसे तय होती है किसी मुद्रा की कीमत?

मान लीजिए कि हम कोई सामान/उत्पाद खरीदते हैं, जैसे अखबार या जूते। या फिर हम कोई सेवा का लाभ उठाते हैं, जैसे- होटल में ठहरना या ट्रेन में सफर करना। इन सभी चीजों का खर्च हम भारतीय मुद्रा- रुपये में करते हैं। हालांकि, इन सब चीजों से इतर कुछ चीजें हैं, जिनके लिए हम विदेश पर निर्भर होते हैं। उदारहण के तौर पर दवा के लिए आने वाले पदार्थों, कच्चे तेल, आदि चीजों के लिए हमें इन्हें आयात करना पड़ता है।

अब अगर विदेश से किसी चीज का आयात किया जा रहा है तो आमतौर पर जिस भी देश से वह चीज मंगाई जा रही है, उसे भुगतान रुपये में नहीं बल्कि उस देश की मुद्रा या डॉलर में किए जाने का चलन है। एक तरह से देखें तो अमेरिकी डॉलर एक केंद्रीय मुद्रा है, जिसके जरिए बाकी देशों को भुगतान करने का चलन है। इसके अलावा ब्रिटेन से मंगाए उत्पादों का भुगतान पाउंड में, यूरोप के किसी भी देश से मंगाए गए उत्पादों का भुगतान यूरो में करने की प्रक्रिया अपनाई जाती है। इसी तरह चीन को किसी उत्पाद के लिए भुगतान उसकी मुद्रा येन या फिर डॉलर में किया जा सकता है।


अब अगर किसी उपभोक्ता को किसी विदेशी उत्पाद की जरूरत है तो इसके लिए वह सीधा रुपये से भुगतान कर उत्पाद हासिल नहीं कर सकता। नियम के तहत उसे संबंधित देश से उत्पाद खरीदने के लिए उसकी मुद्रा या डॉलर में ही भुगतान करना होगा।

इसके लिए उपभोक्ता को पहले अपनी घरेलू मुद्रा (भारत के मामले में भारतीय रुपया) से उस मुद्रा को खरीदना होगा, जो कि दूसरे देश के विक्रेता के सामने मान्य है। उत्पाद को खरीदने के लिए रुपया खर्च कर वह जो विदेशी मुद्रा जुटाएगा, उसी से उपभोक्ता जरूरत का उत्पाद हासिल कर सकता है।

यहां गौर करने वाली बात यह है कि किसी दूसरे देश की मुद्रा को खरीदने के लिए उपभोक्ता को जितनी घरेलू मुद्रा (भारतीय रुपया) खर्च करनी पड़ेगी, वही एक्सचेंज रेट यानी विनिमय दर होगी। सीधे शब्दों में कहें तो विनिमय दर का मतलब है एक देश की मुद्रा के मुकाबले दूसरे देश की मुद्रा की कीमत।

इस लिहाज से अगर एक डॉलर की कीमत 86 रुपये है तो इसका मतलब है कि किसी भी उपभोक्ता को 1 डॉलर खरीदने के लिए 86 रुपये खर्च करने पड़ेंगे। मसलन अगर आपको अमेरिका से कोई 35 डॉलर की किताब भारत मंगानी है तो इसके लिए आपको भारतीय रुपयों को पहले डॉलर में बदलना पड़ेगा। इस लिहाज से अगर एक डॉलर की कीमत 86 रुपये है तो 35 डॉलर खरीदने के लिए आपको खर्च करने होंगे 3010 रुपये। ये खर्च कर ही आप 35 डॉलर खरीदेंगे और इससे विक्रेता को भुगतान करेंगे। तभी आपको उत्पाद मिल सकेगा।

हमें किसी मुद्रा की खरीद के लिए कितना खर्च करना है, ये तय कैसे होता है?

आमतौर पर देशों के बीच मुद्रा की विनिमय दर बदलती रहती है। यह निर्भर करता है किसी मुद्रा की मांग पर। जिस भी मुद्रा की मांग ज्यादा होती है, मांग और आपूर्ति के असंतुलन की वजह से उसकी कीमत भी हमेशा बढ़ती जाती है। इसे भारत और अमेरिका के उदाहरण से समझते हैं।

मान लीजिए अगर भारत और अमेरिका के बीच व्यापार चल रहा है और अमेरिका की तरफ से भारत के उत्पादों या सेवाओं की मांग काफी ज्यादा है तो उसे भारत को भुगतान करने के लिए डॉलर खर्च कर पहले रुपये खरीदने होंगे। यानी रुपये की मांग बढ़ जाएगी। ऐसी स्थिति में डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत भी बढ़ती चली जाएगी।

यहां गौर करने वाली एक बात यह है कि दो देशों की मुद्राओं की विनिमय दर लगातार इसलिए बदलती रहती है, क्योंकि किसी भी समय अलग-अलग देशों का व्यापार भी लगातार चलता रहता है। अब अगर भारत और अमेरिका के बीच व्यापार 24 घंटे जारी है तो मुद्रा के खर्च भी अलग-अलग तरह से जारी रहेंगे।

अब अगर भारतीय लोगों में डॉलर की मांग ज्यादा रहती है और अमेरिकी लोगों में रुपये की मांग कम तो इससे विनिमय दर अमेरिकी डॉलर की तरफ झुकी रहेगी। यानी मांग बढ़ने की वजह से डॉलर ज्यादा कीमती मुद्रा हो जाएगी और इसकी खरीद लगातार महंगी होती रहेगी।

अमेरिकी डॉलर या भारतीय रुपये की मांग कब घटती-बढ़ती है?

दो देशों के बीच मुद्रा की विनिमय दर यानी मांग घटने-बढ़ने के तीन अहम कारण हैं

व्यापार

सेवाएं

निवेश

यह तीनों बातें कैसे डॉलर और रुपये की कीमत पर असर डालती हैं, इसे भी अमेरिका और भारत के उदाहरण से ही समझते हैं-

1. व्यापार

अगर व्यापार में भारत की तरफ से अमेरिकी उत्पादों की मांग ज्यादा है तो उपभोक्ता के तौर पर भारत को भुगतान के लिए ज्यादा डॉलर भी खरीदने होंगे। यानी डॉलर की मांग भी बढ़ जाएगी और यह मुद्रा ज्यादा कीमती हो जाएगी। इससे रुपये के मुकाबले डॉलर की कीमत ज्यादा रहेगी।

दूसरी तरफ अगर अमेरिका की तरफ से भारतीय उत्पादों का आयात ज्यादा किया जा रहा है, तो उसे भारतीय रुपया खरीदने के लिए ज्यादा डॉलर खर्च करने होंगे। ऐसे में भारतीय रुपये की मांग बढ़ जाएगी और रुपये की कीमत भी बढ़ती जाएगी। यानी विनिमय दर रुपये के पाले में झुक जाएगी।

दो देशों के बीच आयात और निर्यात में कभी भी संतुलन नहीं रहता। जब भी यह असंतुलन पैदा होता है और ऊपर दी गई स्थितियां आती है तो डॉलर और रुपये की कीमतें घटती-बढ़ती रहती हैं।

2. सेवाएं

जरूरी नहीं कि दो देशों के बीच यह व्यापार सिर्फ उत्पादों में ही हो। यह व्यापार सेवाओं में भी हो सकता है। अगर भारत में अमेरिकी सेवाओं की मांग ज्यादा है और अमेरिका में भारतीय सेवाओं की मांग कम है तो इससे भी पलड़ा अमेरिकी डॉलर की तरफ ही झुका रहेगा।

उदाहरण के तौर पर अगर अमेरिकी नागरिक भारत में पर्यटन के लिए आते हैं और यहां सेवाओं का लाभ उठाने के लिए डॉलर खर्च कर रुपया खरीदते हैं तो इससे भी रुपया मजबूत होता है। हालांकि, अगर भारत से अमेरिका जाने वाले पर्यटकों की संख्या ज्यादा है या वे ज्यादा रुपया खर्च कर डॉलर खरीद रहे हैं तो इससे रुपये के मुकाबले डॉलर की स्थिति मजबूत होगी।

3. निवेश

रुपया बनाम डॉलर की कीमत घटने-बढ़ने की एक वजह निवेश भी है। अगर अमेरिका भारत में ज्यादा निवेश कर रहा है तो रुपये की मांग तेजी से बढ़ेगी और यह डॉलर के मुकाबले मजबूत हो जाएगा। लेकिन अगर निवेश की रफ्तार कम हुई या अमेरिकी कंपनी ने पूरा निवेश खत्म कर खुद को बाहर कर लिया तो इससे रुपये की खरीद भी कम हो जाएगी और डॉलर के मुकाबले उसकी कीमत में गिरावट आएगी।

अभी डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत में गिरावट की क्या वजह?

1. व्यापार में पाबंदियों के कयास

मौजूदा समय में एक डॉलर के मुकाबले रुपया अपने सबसे निचले स्तर पर है। एक डॉलर की कीमत फिलहाल 86 रुपये से नीचे है। इसकी एक बड़ी वजह अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का आने वाला शासन है। दरअसल, ट्रंप ने अपने मेक अमेरिका ग्रेट अगेन (मागा) अभियान के तहत वादा किया है कि वह कुछ देशों से आयात-निर्यात में बराबरी चाहते हैं और ऐसा नहीं होने पर वे या तो उस देश से होने वाले आयात पर टैक्स (कर) लगाएंगे या आयात पर पाबंदी का प्रावधान करेंगे।

अब ऐसे में अगर डोनाल्ड ट्रंप भारत से आने वाले उत्पादों पर पाबंदी लगा देते हैं या अतिरिक्त कर लगा देते हैं तो अमेरिका में भारत की चीजें महंगी हो जाएंगी और इनकी मांग भी घट सकती है। ऐसे में अमेरिका कम डॉलर खर्च करेगा और कम भारतीय रुपया खरीदेगा। यानी रुपये की मांग कम हो जाएगी। इससे डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत में भी गिरावट आएगी।

2. भारत में निवेश में कमी के आसार

डोनाल्ड ट्रंप के मेक अमेरिका ग्रेट अगेन अभियान के चलते अमेरिका में इस वक्त राष्ट्रवाद को लेकर भी मुखर समर्थन जारी है। खासकर रिपब्लिकन पार्टी ने अपने उद्योगपतियों और उद्योगों से अमेरिका और अमेरिकी लोगों में ज्यादा निवेश की मांग की है। इसका असर भारत में होने वाले निवेश पर भी देखा जा रहा है। कई बड़ी कंपनियों ने ट्रंप प्रशासन के आने से पहले ही बीते दिनों में भारतीय बाजारों से अपनी निवेश में लगाई गई पूंजी या तो निकाली है या फिर किए हुए निवेश को आगे बढ़ाने से पहले एहतियात बरता है। इसका असर यह हुआ है कि भारत में स्टॉक्स में विदेशी मुद्रा की आवक घटी है, जिससे रुपया भी कमजोर हुआ है।

3. कच्चे तेल की बढ़ती कीमतें

इसके अलावा कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों की वजह से भी भारत को ज्यादा खर्च करना पड़ रहा है। दरअसल, रूस और ईरान को छोड़ दें तो बाकी देशों से तेल खरीदने के लिए भारतीय कंपनियां अधिकतर डॉलर में ही भुगतान करती हैं। ऐसे में भारत के डॉलर भंडार में भी कमी दर्ज की गई है।

4. अमेरिका में ब्याज दरों में कटौती न होने के आसार

दूसरी तरफ अमेरिका में दिसंबर में 2,56,000 नौकरियां जुड़ी हैं, जिससे यहां बेरोजगारी दर गिरकर 4.1 फीसदी पर आ गई है। इसके चलते अमेरिका में घरेलू उत्पादों की मांग बढ़ने के आसार हैं, जिससे महंगाई दर में भी बढ़ोतरी देखे जाने का अनुमान है। अगर यह स्थिति बरकरार रहती है तो अमेरिका का केंद्रीय बैंक- फेडरल रिजर्व कर्ज पर लगने वाली ब्याज की दरों में कटौती के फैसले को कुछ समय के लिए रोक सकता है, ताकि महंगाई को आगे बढ़ने से रोका जा सके। इस स्थिति में अमेरिका में लोग खर्चों को रोक सकते हैं। इसका सीधा असर डॉलर की वैल्यू पर पड़ेगा, जो कि बाकी मुद्राओं के मुकाबले और मजबूत हो जाएगी।

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