नई लोकसभा में PM मोदी-राजनाथ और खरगे-राहुल की अग्निपरीक्षा; आने वाले दिनों में तजुर्बे की कसौटी
लोकसभा चुनावों में चाहते न चाहते जाने अनजाने आखिरकार मुकाबला मोदी बनाम राहुल हो गया और अब आगे की राजनीति भी मोदी बनाम राहुल ही होगी। क्योंकि जिस तरह का जनादेश जनता ने दिया है उसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के नेता राहुल गांधी दोनों को ही लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा देनी होगी। जहां प्रधानमंत्री मोदी को अब गठबंधन सरकार को सफलता पूर्वक चलाने की चुनौती है तो राहुल गाधी के सामने विपक्षी इंडिया गठबंधन को एकजुट बनाए रखते हुए सरकार को घेरने की अहम जिम्मेदारी है।ये दोनों अग्निपरीक्षाएं भारतीय राजनीति के इन दोनों शीर्ष नेताओं को अलग अलग देनी हैं।लेकिन जिस तरह 18 वीं लोकसभा चुनकर आई है उसमें देश की राजनीति में दो नेताओं की भूमिका बेहद अहम हो गई है।सत्ता पक्ष में राजनाथ सिंह सरकार के संकट प्रबंधक बन कर उभरे हैं तो विपक्ष में मल्लिकार्जुन खरगे की भूमिका एक अभिभावक नेता की बनती जा रही है।जहां मोदी और राहुल एक दूसरे पर पहले की तरह आक्रामक रहेंगे वहीं इन दोनों नेताओं पर पक्ष विपक्ष के बीच भड़कने वाली सियासी आग पर पानी डालने और अपने अपने खेमों को एकजुट बनाए रखने की होगी।
केंद्र में तीसरी बार सरकार बनाकर नरेंद्र मोदी ने प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की बराबरी कर ली है।लेकिन फर्क ये है कि नेहरू ने तीसरी बार भी अपनी पार्टी कांग्रेस के लिए प्रचंड बहुमत जुटाया था और उनके सामने विपक्ष इतना मजबूत नहीं था जितना अब है।लेकिन मोदी की सरकार में उनके दल भाजपा को अकेले बहुमत नहीं है और सरकार बनाने और चलाने के लिए भाजपा की चंद्रबाबू नायडू नीतीश कुमार अनुप्रिया पटेल जयंत चौधरी पवन कल्याण जीतनराम मांझी एकनाथ शिंद अजीत पवार के दलों वाले एनडीए पर निर्भरता है।मोदी राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी हैं और पहले करीब 13 साल गुजरात और फिर पिछले दस साल केंद्र में सफल सरकार चलाने का उन्हें अनुभव है।लेकिन गुजरात से लेकर केंद्र तक मोदी ने अभी तक अपने दल के पूर्ण बहुमत वाली सरकारें अपनी हनक और धमक से चलाई हैं।उन्हें गठबंधन सरकार चलाने का तजुर्बा नहीं है।हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए की गठबंधन सरकार के वक्त वह पहले दिल्ली में भाजपा के महासचिव और फिर गुजरात में मुख्यमंत्री रहते हुए उनके रिश्ते भाजपा के सहयोगी दलों के नेताओं के साथ रहे हैं।चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार तब भी वाजपेयी सरकार के हिस्से थे।इसलिए उनके साथ संवाद और संपर्क में मोदी को कोई समस्या नहीं है।
हालांकि, अभी तक मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की कार्यशैली एक मजबूत और धमक वाले ऐसे नेता की रही है जिसके सामने पार्टी और सरकार में बाकी सारे नेता बौने हो जाते हैं।जबकि अटल बिहारी वाजपेयी की कार्यशैली में समावेशिता का पुट ज्यादा था और वह सत्ता के विकेंद्रीकरण और जिम्मेदारियों के हस्तांतरण में भरोसा रखते थे।इसके विपरीत मोदी सरकार सत्ता के केंद्रीयकरण और मोदी द्वारा सब कुछ अपने ऊपर ले लेने की लिए जानी जाती रही है।इसीलिए नोटबंदी, लॉकडाऊन, सीएए, अनुच्छेद 370, जीएसटी जैसे फैसले तमाम अवरोधों के बावजूद सरकार ले सकी।नोटबंदी और लॉकडाऊन जैसे फैसले जिस तरह अचानक घोषित किए गए वो किसी गठबंधन सरकार में मुमकिन नहीं हैं।ऐसे किसी भी फैसले के लिए जिसमें किसी भी तरह के विवाद की संभावना हो उसे लेने से पहले सहयोगी दलों से परामर्श करना और उनकी सलाह के मुताबिक उसमें फेरबदल करने के लिए तैयार रहना गठबंधन सरकार की कामयाबी की पहली शर्त होती है।सरकार बिना किसी अवरोध के चले इसके लिए भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सहयोगी दलों खासकर तेलुगू देशम और जनता दल यू की भावनाओं और संवेदनाओं का ध्यान रखना होगा।
इसके लिए जरूरी है कि सहयोगी दलों के साथ निरंतर संवाद बना रहे और या तो टकराव की स्थिति पैदा न होने दी जाए या फिर ऐसी स्थिति होने पर कोई बीच का रास्ता निकाला जा सके।इसके लिए भाजपा में राजनाथ सिंह से बेहतर कोई दूसरा नेता नहीं है।वरिष्ठता अनुभव और परिपक्वता से भरपूर राजनाथ सिंह राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी के समावेशी राजनीतिक स्कूल से आते हैं।उनका राजनीतिक विकास वाजपेयी आडवाणी और जोशी के अनुयायी बनकर हुआ है।उनकी मृदुभाषिता और मैत्रीपूर्ण व्यवहार की प्रशंसा विपक्षी दल भी करते हैं।इसीलिए सरकार बनने के बाद सहयोगी दलों के साथ साथ विपक्षी नेताओं को भी साधे रखने की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ टिकी है।लोकसभा अध्यक्ष का चुनाव बिना किसी अवरोध के निर्विरोध हो जाए इसके लिए राजनाथ सिंह ही सभी दलों से संवाद कर रहे हैं।
गठबंधन सरकार की दूसरी बड़ी चुनौती है सहयोगी दलों का दबाव। यह दबाव सरकार गठन के समय से ही शुरु हो जाता है।भले ही प्रकट तौर पर कहा जाए कि सहयोगी दलों ने बिना शर्त समर्थन दिया है लेकिन परदे के पीछे की सच्चाई है कि सारी बातें तय होने के बाद ही सहयोगी दल समर्थन देते हैं।किस दल को कितने मंत्री पद मिलेंगे, स्पीकर किसका होगा, विभाग कौन से मिलेंगे यह सब कुछ प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण से पहले काफी हद तक तय हो चुका होता है।जाहिर है कि इस बार भी सत्ता की साझेदारी से जुड़े इन मुद्दों पर कुछ सहमति बन चुकी थी इसलिए मंत्री पद के बंटवारे में कोई झंझट नहीं हुआ।सहयोगी दलों की प्राथमिकता उनके राज्यों में अपनी स्थिति मजबूत करने की होती है और इसके लिए वो केंद्र सरकार से अपने राज्यों के लिए ज्यादा से ज्यादा संसाधन, रियायतें और विकास परियोजनाओं की मांग करके अपना दबाव बनाते रहते हैं। इस मामले में चंद्रबाबू नायडू को काफी दिग्गज माना जाता है और अटल बिहारी सरकार से अपने समर्थन की राजनीतिक कीमत वसूलते रहने के लिए की जाने वाली सियासी सौदेबाजी के किस्से राजनीति और मीडिया के गलियारों में आजतक चर्चित हैं।चर्चा है कि चंद्रबाबू ने आंध्र प्रदेश के लिए विशेष आर्थिक पैकेज और लोकसभा अध्यक्ष पद की अपनी मांग रख दी है।जबकि नीतीश कुमार ने हमेशा बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने को अपना सियासी मुद्दा बनाया लेकिन अभी तक उसे हासिल नहीं कर पाए हैं। क्या इस बार वह केंद्र पर इसका दबाव बनाएंगे और मोदी इससे कैसे निबटेंगे क्योंकि बिहार को यह दर्जा देते ही देश के अनेक और राज्य इस मांग को लेकर केंद्र के दरवाजे पर दस्तक देंगे। इनमें नया नया भाजपा शासित उड़ीसा भी शामिल होगा।
हमेशा गैर भाजपा दलों जिनमें तेलुगू देशम और जदयू भी शामिल हैं पर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगाने वाली भाजपा के सामने इन दोनों दलों की मुस्लिम राजनीति से तालमेल बिठाना भी एक चुनौती होगी।जिस मुस्लिम आरक्षण के विरोध को लोकसभा चुनावों में सबसे बड़ा मुद्दा बनाकर भाजपा अपने पक्ष में हिंदू ध्रुवीकरण करने की कोशिश में थी तेलुगू देशम ने उसे आंध्र प्रदेश में लागू करने का चुनावी वादा कर रखा है।तेलुगू देशम के घोषणा पत्र में मुसलमानों को अलग से चार फीसदी आरक्षण देने और कई तरह के लाभ मुस्लिमों को दिए जाने की घोषणाओं पर जब चंद्रबाबू नायडू की सरकार अमल करेगी तब भाजपा की प्रतिक्रिया क्या होगी यह देखना भी दिलचस्प होगा।क्योंकि चंद्रबाबू के पुत्र और तेलुगू देशम में नंबर दो की हैसियत रखने वाले नर लोकेश ने इस बात को दोहराया है कि तेलुगू देशम सरकार आंध्र प्रदेश में अपने सारे चुनावी वादों को पूरा करेगी और अपने घोषणापत्र को अमल में लाएगी। भाजपा इस सरकार में शामिल है और जब आंध्र सरकार अपने मुस्लिम एजेंडे को लागू करेगी तब भाजपा उस सरकार में क्या शामिल रह पाएगी।और अगर भाजपा राज्य सरकार से बाहर आती है तो केंद्र में भाजपा और तेलुगू देशम के संबंधों पर इसका क्या असर पड़ेगा।
वहीं नीतीश कुमार ने बिहार में पिछडों के आरक्षण में मंडल आयोग की सिफारिशों के मुताबिक कई मुस्लिम पिछड़ी जातियों (पसमांदा) को आरक्षण सूची में जोड़ा और पिछड़ों के आरक्षण का दायरा पंचायतों और स्थानीय निकायों तक बढ़ाकर उनमें पसमांदा प्रतिनिधित्व दिया है।साथ ही बिहार में जातीय जनगणना कराकर उसके आंकड़े जारी करने वाले नीतीश कुमार अब देश भर में जातीय जनगणना कराने का दबाव अगर केंद्र पर बनाएंगे तो प्रधानमंत्री मोदी उसे मानेंगे या नहीं।इसी तरह क्या नीतीश कुमार बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने और बिहार विधानसभा का चुनाव इसी साल महाराष्ट्र व हरियाणा के साथ कराने का दबाव भाजपा पर बनाएंगे जैसा कि जब वह राजद के साथ सरकार चला रहे थे, तब उनकी एक मांग यह भी थी कि लोकसभा चुनावों के साथ विधानसभा के चुनाव भी करा लिये जाएं लेकिन लालू प्रसाद यादव इससे सहमत नहीं थे।जद(यू) के सूत्रों के मुताबिक नीतीश का राजद से गठबंधन तोड़ने की पीछे ये भी एक कारण था। ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनसे भविष्य़ में केंद्र की मौजूदा एनडीए सरकार के सामने असमंजस खड़ा हो सकता है और तब रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के कंधों पर देश की रक्षा के साथ साथ अपनी सरकार की रक्षा की भी बड़ी जिम्मेदारी होगी।राजनाथ सिंह न सिर्फ वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए गठबंधन सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे हैं बल्कि उत्तर प्रदेश में भी वह भाजपा और सहयोगी दलों की गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री रह चुके हैं।इसलिए उन्हें गठबंधन राजनीति का बेहतर अनुभव है जो अब केंद्र सरकार में काम आएगा।
उधर कांग्रेस में भले ही दो यात्राओं और लोकसभा चुनावों ने राहुल गांधी को सर्वमान्य सर्वोच्च नेता बना दिया हो लेकिन सरकार और प्रधानमंत्री मोदी के प्रति आक्रामकता उनकी पहचान बन चुकी है जिसके जारी रहने की पूरी संभावना है।अगर राहुल लोकसभा में नेता विपक्ष बनते हैं तो सरकार के साथ विपक्ष का टकराव और बढ़ेगा इससे इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे जो भले ही राज्यसभा में विपक्ष के नेता हैं, की जिम्मेदारी और भूमिका निस्संदेह बढ़ जाएगी।बुजुर्ग खरगे उम्र और अनुभव के साथ साथ मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता रह चुके हैं और उनके प्रधानमंत्री मोदी रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह समेत भाजपा के वरिष्ठ नेताओं से संवाद और सहयोग के रिश्ते रहे हैं।अब कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने जिस तरह पार्टी और विपक्षी इंडिया गठबंधन की अगुआई की है उससे राजनीति में उनका कद काफी बढ़ा है।विपक्ष के लगभग सभी नेता खरगे का सम्मान करते हैं और अगर इंडिया गठबंधन की सरकार बनने की संभावना होती तो बहुत मुमकिन था खरगे को ही प्रधानमंत्री पद के लिए आगे किया जाता।