पिप्पली : मसाला भी, औषधि भी, जानिए किन बीमारियों में है रामबाण, आखिर क्यों पश्चिमी देशों ने इसे भुला दिया

पिप्पली : मसाला भी, औषधि भी, जानिए किन बीमारियों में है रामबाण, आखिर क्यों पश्चिमी देशों ने इसे भुला दिया
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भारतीय रसोई में पाये जाने वाले मसाले स्वाद के साथ-साथ औषधिय गुणों से भी युक्त होते हैं. ऐसा ही एक मसाला है पिपली या पिप्पली, जिसका आयुर्वेद में बहुत महत्व है, क्योंकि कई रोगों के उपचार में इसका उपयोग किया जाता है.काली मिर्च की तुलना में कहीं अधिक तीखी

मेघालय का पूर्वोत्तर राज्य पिप्पली का घर है. पिप्पली को भारतीय लंबी काली मिर्च के नाम से भी जाना जाता है. यह मसाला दिखने में सूखी हरी मिर्च जैसा लगता है जिसे भूलवश एंथूरियम फूल का दाना (स्पाइक) भी समझ लिया जाता है. पिप्पली काली मिर्च की तुलना में कहीं अधिक तीखी होती है. आयुर्वेदिक दवाओं में इसका खूब उपयोग होता है, क्योंकि कई बीमारियों की यह अचूक औषधि मानी जाती है.

इस तरह किया जाता है उपयोग

पिप्पली लंबी और शंकु (conical) के आकार की होती है. यह जानना दिलचस्प है कि आकार में भिन्न होने के बावजूद यह काली मिर्च के परिवार की ही एक सदस्य है. पिप्पली पर छोटे-छोटे मिर्च के दाने लगे होते हैं, जिन्हें धूप में सुखाया जाता है. सुखाने के बाद आप चाहें तो साबूत या फिर पीसकर इसका उपयोग कर सकते हैं. इसके उपयोग करने का यही तरीका है. अब बारी गंध व स्वाद की है. इसकी गंध काली मिर्च के समान ही होती है, परंतु इसका स्वाद काली मिर्च से अलग होता है. सच कहें, तो इसके खाने के बाद आपको कई तरह का स्वाद महसूस होता है- मीठा, तीखा और खट्टा. ये सभी स्वाद आपको एक साथ महसूस होते हैं. जबकि भारतीय रसोई और देसी चिकित्सा पद्धतियों जैसे आयुर्वेद यूनानी और सिद्ध में अभी भी इस मसाले का उपयोग होता है, यूरोपीय व अन्य पश्चिमी देश लंबे समय से इस औषधि का उपयोग जैसे भूल से गये हैं.

मेघालय के साथ इन राज्यों में भी होती है खेती

पिप्पली एक बेल वाला पौधा (Wine Plant) है. इसकी बेलें, जो बहुत पतली होती हैं, मुख्य रूप से मेघालय के चेरापूंजी क्षेत्र में उगती हैं. ये बेलें बारहमासी और सुगंधित होती हैं तथा पेड़ों की छाया में अच्छी तरह पनपती हैं. इस मसाले की खेती मेघालय के साथ-साथ असम, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में भी की जाती है. हमारे पड़ोसी देश नेपाल में भी इसकी खेती होती है. बरसात के मौसम की शुरुआत में ही पिप्पली के पौधे रोपे जाते है. ये पौधे चूना-पत्थर मिट्टी (limestone soil) में बहुत अच्छी तरह पनपते व बढ़ते हैं. ये पौधे अपनी रोपनी के चार से पांच वर्ष तक अच्छी उपज देते हैं. कह सकते हैं कि इनका जीवनकाल लगभग चार से पांच वर्ष का होता है. उसके बाद इनकी उपज कम हो जाती है और तब इन पौधों को उखाड़ दिया जाता है तथा नये पौधे लगाये जाते हैं. रोपे जाने के लगभग पांच महीने बाद ये उपज देने लगते हैं. पिप्पली के दाने, जो वास्तव में इस पौधे के फूल होते हैं, जनवरी में तभी तोड़ लिये जाते हैं जब वे हरे, कड़वे और कोमल होते हैं. तोड़ने के बाद इन दानों को धूप में अच्छी तरह तब तक सुखाया जाता है जब तक कि ये भूरे रंग के नहीं हो जाते.

ऐसे तैयार होती है औषधि पीपलामूल

पिप्पली के पौधे का फल और जड़ उसका सबसे मूल्यवान हिस्सा होता है, या यूं कहें कि ये दोनों सर्वाधिक औषधीय गुणों वाले भाग होते हैं. आयुर्वेद में इसकी जड़ों की बहुत मांग है. पिप्पली की जड़ें और तने के मोटे हिस्सों को काटकर सुखाया जाता है. इन हिस्सों को सुखाने के बाद आयुर्वेदिक तथा यूनानी चिकित्सा में इसे पीपलामूल अथवा पिप्पली (जिसे एक महत्वपूर्ण औषधि माना जाता है) के रूप में इनका उपयोग किया जाता है. इसके फलों का मसाले और अचार के रूप में भी सेवन किया जाता है, जो स्वाद में तीखा और मिर्च के समान होता है. दक्षिण भारत में, पीप्पली के पौधे की जड़ का उपयोग ‘कंदाथिपिल्ली रसम’ नामक औषधीय सूप बनाने के लिए किया जाता है. इसके सेवन से शरीर दर्द, गठिया और सर्दी-खांसी में आराम मिलता है. पिप्पली कोमा और उनींदेपन (coma and drowsiness) में सुंघनी (snuff) के रूप में उपयोग में लायी जाती है. इतना ही नहीं, यह गैस से मुक्ति दिलाने में भी प्रभावी है. अनिद्रा और मिर्गी से पीड़ितों को राहत देने के लिए sedative के रूप में भी इसका उपयोग किया जाता है. माना जाता है कि पिप्पली कैंसर से लड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है.

इस कारण पश्चिमी देश इसे भुला बैठे

एक समय था जब यूरोपीय देशों में पिप्पली का खूब उपयोग किया जाता था. तब यहां यह भूमि के जरिये होने वाले व्यापार मार्गों से आती थी, जबकि काली मिर्च समुद्री मार्गों से आती थी. धीरे-धीरे जल के माध्यम से होने वाले व्यापार मार्गों की संख्या बढ़ती चली गयी, जिसके परिणामस्वरूप काली मिर्च सस्ती और अधिक सुलभ हो गयी. सो यहां पिप्पली का उपयोग कम हो गया. पिप्पली इसलिए भी पश्चिमी देशों में पीछे हो गयी क्योंकि दक्षिण अमेरिका की मिर्च भी यहां के बाजारों में दिखनी शुरू हो गयी. थोड़े ही समय में यह पिप्पली का प्राकृतिक विकल्प बन गयी और इसे ‘अमेरिकी लंबी काली मिर्च’ कहा जाने लगा. इस तरह पिप्पली काली मिर्च व अमेरिकी मिर्च के साथ प्रतियोगिता हार गयी. हालांकि, इस औषधिय गुणों से युक्त मसाले को भारत में आज भी अच्छी तरह जाना जाता है और इसका उपयोग किया जाता है, परंतु पश्चिम में लोगों ने इसे करीब-करीब भुला ही दिया है.

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