अस्तित्व की सार्थकता

अस्तित्व की सार्थकता

एक दिन एक महान तपस्वी ने तीन पहाड़ों को देखा। उन्होंने तीनों पहाड़ों से पूछा कि वे स्वयं में कैसा परिवर्तन चाहते हैं?’ पहले पहाड़ ने कहा, ‘महाराज, मुझे बहुत ऊंचा उठा दीजिए।’ दूसरे पहाड़ ने कहा, ‘महाराज, मुझे हरा-भरा बना दिया जाए ताकि साधकों को मेरी हरियाली से लाभ व आनंद मिले।’ तीसरा पहाड़ बोला, ‘महाराज, मैं तो अपना जीवन सार्थक करना चाहता हूं। इसलिए आप मुझे समतल बना दें।’ कुछ समय बाद उन तीनों पहाड़ों के बारे में लोगों की अलग-अलग राय बनती गई। पहले पहाड़ के बारे में लोगों का कहना था कि अधिक ऊंचे उठ जाने के कारण उस पहाड़ को गर्मी व सर्दी अधिक सहनी पड़ती थी और बादल गरजने पर कड़कती बिजली के आघात भी उसी को सहने पड़ते थे। जिस पहाड़ ने हरा-भरा और फल-फूलों से लदा होने की इच्छा की थी वह सामान्य से अधिक ऊंचाई होने के कारण लोग उस पहाड़ से अधिक लाभान्वित न हो सके। सबसे अधिक फायदे में तीसरा पहाड़ रहा जिसने स्वयं को समतल करा लिया था। समतल बनने के बाद अब उस पहाड़ी पर अनेक फसलें, फल-फूल लहलहा रहे थे और फसलों व फल-फूल के माध्यम से अनेक लोगों की जीविका चल रही थी जिससे पहाड़ को भी आत्मसंतुष्टि मिल रही थी और साथ ही उसका अस्तित्व भी सार्थक हो गया था।

 रेनू सैनी

 

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