कमीशनखोरी की कीमत चुकाता देश:: पुलों के गिरने, सड़कों के धंसने और और रेल पटरियों का क्षतिग्रस्त होना इसका सबसे बड़ा उदाहरण

पुलों के गिरने, सड़कों के धंसने और और रेल पटरियों का क्षतिग्रस्त होना इसका सबसे बड़ा उदाहरण
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राजीव सचान। इन दिनों देश के कई हिस्सों से पुलों के गिरने, सड़कों के धंसने, हाईवे में गड्ढे होने और रेल पटरियों के क्षतिग्रस्त होने के समाचार आ रहे हैं। बरसात में ऐसे समाचार आते ही हैं। यह तय है कि जब कहीं कम समय में बहुत अधिक वर्षा हो जाएगी, जो जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव के चलते प्रायः होने लगी है तो वहां जलभराव होगा।

इसका उदाहरण कुछ समय पहले उत्कृष्ट आधारभूत ढांचे वाले शहर दुबई में भी मिला था, जहां भारी बरसात से जनजीवन अस्तव्यस्त हो गया था, लेकिन अपने देश में थोड़ी सी अधिक और कई बार तो मामूली बरसात में जगह-जगह जलभराव ही नहीं हो जाता, बल्कि आधारभूत ढांचे की पोल भी खुल जाती है। इससे इन्कार नहीं कि पिछले कुछ समय से देश में आधारभूत ढांचे का निर्माण तेजी से हो रहा है।

देश भर में हाईवे, सड़कें, पुल, फ्लाईओवर, सबवे के साथ हवाईअड्डे और रेलवे स्टेशन बन या संवर रहे हैं, लेकिन यह कहना कठिन है कि उनकी गुणवत्ता विश्वस्तरीय है। चूंकि ऐसा नहीं है, इसलिए इस आधारभूत ढांचे की मजबूती की पोल खुलती रहती है, लेकिन हमारे नीति-नियंता चेत नहीं रहे हैं। जब कहीं कोई सड़क, पुल या आधारभूत ढांचे से जुड़ा कोई अन्य निर्माण टूटता-फूटता है तो विरोधी दल सत्ताधारी दल पर टूट पड़ते हैं।

यह बात और है कि कोई नहीं कह सकता कि अमुक दल द्वारा शासित राज्य में आधारभूत ढांचे के निर्माण में किसी तरह की खामी नहीं। सत्य यह है कि केंद्र या राज्य में किसी भी दल की सरकार हो, उसके समय में बनाए गए आधारभूत ढांचे के निर्माण की गुणवत्ता पर सवाल उठते ही रहते हैं।

पिछले दिनों जब दिल्ली में भारी बरसात के कारण इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे के एक हिस्से की छत गिरी और उसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई तो विरोधी दलों ने मोदी सरकार को निशाने पर ले लिया। इसके जवाब में सत्तापक्ष के नेताओं की ओर से कहा गया कि इस छत का निर्माण तो मनमोहन सरकार के समय 2009 में कराया गया था।

क्या महज 15 वर्ष पुराने निर्माण कार्य का ढह जाना स्वीकार्य है? क्या उसकी देखरेख इसलिए नहीं हो रही थी कि उसका निर्माण पिछली सरकार ने कराया था? इन प्रश्नों के बीच यह खबर आई कि जबलपुर हवाईअड्डे की छत गिर गई। जबलपुर के बाद राजकोट हवाईअड्डे की भी छत गिरने की खबर आ गई। इन दोनों हवाईअड्डों का लोकार्पण हाल में ही किया गया था।

आधारभूत ढांचे की पोल खोलने वाली इन घटनाओं को महज दुर्योग नहीं कहा जा सकता। ये घटनाएं कहीं न कहीं यही बताती हैं कि सरकारी एजेंसियों की ओर से दोयम दर्जे का निर्माण कराया जा रहा है। इसका पता बिहार में एक के बाद एक पुलों के गिरने से भी चलता है। ये सभी बहुत पुराने पुल नहीं थे। इनमें से कुछ 10-20 साल पुराने भी थे।

क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि जब अंग्रेजों के बनाए तमाम पुल अभी सही सलामत हैं, तब 10-20 साल पुराने पुल भी ढह जा रहे हैं? सड़कों और यहां तक कि हाईवे की भी स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं। अपने देश में ज्यादातर सड़कें पहली बरसात का भी सामना नहीं कर पातीं। इस सच से मुंह मोड़ने का कोई मतलब नहीं कि अपने देश में दोयम दर्जे के आधारभूत ढांचे का निर्माण हो रहा है।

उसके निर्माण में मानकों की अनदेखी का प्रमुख कारण भ्रष्टाचार है। कई बार यह भ्रष्टाचार नेताओं और नौकरशाहों की ओर से मिलकर किया जाता है और कई बार उसके लिए केवल नौकरशाह जिम्मेदार होते हैं। रिश्वतखोर नौकरशाह भ्रष्ट ठेकेदारों को तैयार करते हैं और फिर दोनों मिलकर दोयम दर्जे का निर्माण करते हैं। हर तरह के निर्माण कार्यों में कमीशनखोरी यानी दलाली एक अलिखित नियम है।

अलग-अलग राज्यों में इस दलाली की भिन्न-भिन्न दरें हो सकती हैं, लेकिन निर्माण कार्यों के एवज में खर्च धनराशि का भुगतान बिना कमीशन हासिल करना आसान नहीं। ऐसा नहीं है कि शासकगण इससे परिचित न हों, लेकिन वे नौकरशाही में सुधार की दिशा में बढ़ने के बजाय उससे इन्कार कर रहे हैं। यह तब है जब नौकरशाही के भ्रष्टाचार की कीमत प्रायः उन्हें ही चुकानी पड़ती है।

नेतागण इससे अनजान नहीं कि नौकरशाही के भ्रष्टाचार अथवा जन समस्याओं के प्रति उसकी बेरुखी के चलते जनता की नाराजगी का सबसे अधिक सामना उन्हें ही करना पड़ता है, लेकिन कोई नहीं जानता कि वे नौकरशाही में सुधार की दिशा में आगे क्यों नहीं बढ़ते? अपने देश में प्रशासनिक सुधार एक लंबे समय से लंबित हैं। 2005 में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में जिस दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन हुआ था, उसकी रपट मनमोहन सरकार के समय भी ठंडे बस्ते में पड़ी रही और मोदी सरकार के समय भी।

निःसंदेह किसी भी सरकार का काम नौकरशाही के बिना नहीं चल सकता, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि उसे मनमानी करने दी जाए। देश में फिलहाल ऐसी ही स्थिति है। जो सरकारें कठोर फैसलों के लिए जानी जाती हैं, वे भी प्रशासनिक सुधारों से बचती हैं। इससे भी खराब बात यह है कि कई बार वे अपने ही दल के जनप्रतिनिधियों से अधिक नौकरशाहों पर भरोसा करती हैं।

करीब-करीब सभी यह मान रहे हैं कि लोकसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश में जो अप्रत्याशित परिणाम देखने को मिले, उसका एक बड़ा कारण नौकरशाही की मनमानी रही, लेकिन इसके आसार कम ही हैं कि उसे जवाबदेह बनाने की कोई ठोस पहल होगी। क्या हमारे नेता यह बुनियादी बात नहीं समझ पा रहे हैं कि बेलगाम नौकरशाहों की मनमानी के कारण वे तो बदनाम होकर सत्ता से बाहर हो जाते हैं, लेकिन नौकरशाह मजे करते रहते हैं?(साभार जागरण)

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