इलाहाबाद हाई कोर्ट की कड़ी चेतावनी!: टीवी, मोबाइल और सोशल मीडिया छीन रहे बच्चों की मासूमियत

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने किशोरों पर टेलीविजन, इंटरनेट और सोशल मीडिया के बुरे असर को लेकर गंभीर चिंता जताई है। कोर्ट ने कहा कि ये डिजिटल माध्यम बहुत कम उम्र में ही बच्चों की मासूमियत खत्म कर रहे हैं। कोर्ट ने सरकार की तरफ इशारा करते हुए कहा कि ये तकनीकें इतनी अनियंत्रित हैं कि सरकार भी इनके प्रभाव पर काबू नहीं पा रही है। यह टिप्पणी न्यायमूर्ति सिद्धार्थ ने एक आपराधिक पुनरीक्षण याचिका की सुनवाई के दौरान की। यह याचिका एक 16 साल के किशोर की तरफ से दाखिल की गई थी, जिसे नाबालिग लड़की के साथ संबंध बनाने के आरोप में वयस्क की तरह सजा देने की बात चल रही थी।
कोर्ट ने क्या कहा?
कोर्ट ने साफ किया कि सिर्फ इस वजह से कि किसी किशोर ने एक गंभीर (जघन्य) अपराध किया है, उसे वयस्क की तरह ट्रीट नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने कहा – रिकॉर्ड में ऐसा कुछ नहीं है जिससे यह साबित हो कि आरोपी किशोर ने किसी उकसावे के बिना जानबूझकर अपराध को अंजाम दिया हो। इसलिए कोर्ट ने निर्देश दिया कि उस किशोर पर किशोर न्याय बोर्ड के तहत मुकदमा चले, ना कि एक वयस्क के रूप में।
मनोवैज्ञानिक रिपोर्ट में क्या सामने आया?
कोर्ट ने मनोवैज्ञानिक की रिपोर्ट पर भी ध्यान दिया, जिसमें बताया गया कि किशोर का IQ केवल 66 है, जो उसे 'सीमांत बुद्धि' (borderline intellectual functioning) की श्रेणी में रखता है। उसका मानसिक स्तर एक 6 साल के बच्चे के बराबर पाया गया। उसे पढ़ाई में दिक्कत थी और सामाजिक जीवन में भी कठिनाइयां थीं। इस आधार पर कोर्ट ने कहा कि मनोवैज्ञानिक रिपोर्ट आरोपी किशोर के पक्ष में है।
जानिए क्या था पूरा मामला?
पुलिस के मुताबिक, किशोर ने एक नाबालिग लड़की के साथ शारीरिक संबंध बनाए थे। इस पर पोक्सो कोर्ट ने उसे वयस्क की तरह मुकदमा झेलने का आदेश दिया था। हालांकि हाई कोर्ट ने पाया कि लड़की की उम्र उस समय करीब 14 साल थी।गर्भपात की दवा देने का फैसला अकेले आरोपी का नहीं था, उसमें 2 अन्य लोग भी शामिल थे।
'निर्भया मामला अपवाद था' – कोर्ट
हाई कोर्ट ने कहा कि केवल अपराध की गंभीरता के आधार पर किसी किशोर को वयस्क जैसा नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने 'निर्भया कांड' का जिक्र करते हुए कहा निर्भया केस एक अपवाद था, ना कि कोई सामान्य उदाहरण। हर किशोर को वयस्क की तरह नहीं देखा जा सकता, जब तक उसकी मानसिक और सामाजिक स्थिति की गहराई से जांच ना हो।
बॉम्बे हाई कोर्ट की टिप्पणी से सहमति
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने बॉम्बे हाई कोर्ट के 2019 के एक फैसले से सहमति जताई, जिसमें कहा गया था कि इंटरनेट, टीवी और सोशल मीडिया किशोरों के दिमाग पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहे हैं। ये माध्यम उनके व्यक्तित्व और सोच को बिगाड़ रहे हैं। और सरकार इस पर नियंत्रण नहीं कर पा रही है क्योंकि तकनीक की रफ्तार बहुत तेज है
