महाराणा कुम्भा की 608 वीं जन्म जयंती विशेष: मदारिया माल्यावास जन्म स्थल : मेवाड़ निर्माता कीर्ति पुरुष
राजसमन्द (राव दिलीप सिंह परिहार)शौर्य, भक्ति एवं बलिदान की धरा मेवाड़ का कण कण अपने में गौरवशाली इतिहास समेटे हुए हैं। इसी गौरवशाली इतिहास गगन में महाराणा कुम्भा एक दिव्य नक्षत्र की भाँति आभा बिखेर रहे हैं।
जन्मकाल एवं जनश्रुती : प्रातः स्मरणीय महाराणा कुम्भा का जन्म मकर संक्रान्ति 1417 ई. में मेवाड प्रदेश के उत्तरी छोर स्थित मदारिया में हुआ। ये महाराणा मोकल के ज्येष्ठ पुत्र थे एवं परमार कुल की सौभाग्य देवी इनकी माता थी। मदारिया का मेवाड़ के राजनैतिक इतिहास में एक केन्द्रीय महत्त्व सदा से ही रहा है। उन दिनों मेरो के उत्पात से निजात पाने के लिए महाराणा मोकल ने मदारिया को अपना अस्थायी केन्द्र बनाया था। इसी सैनिक अभियान के दौरान महाराणा कुम्भा का जन्म हुआ। महाराणा कुम्भा के जन्म के बारे में एक रौचक कथा एवं जनश्रुति सम्पूर्ण मेवाड में व्याप्त है - महाराणा मोकल के तीन रानियाँ थी, पहली जैसलमेर की भटीयाणी रानी, दूसरी हाडी रानी एवं तीसरी कुम्भा की जननी- रणकोट के स्वामी परमार वंशीय जैतमल साँखला की पुत्री सौभाग्य देवी। कहते हैं जब रानी सौभाग्य देवी गर्भवती हुई तो. मजली हाडी रानी ने सौतिया डाह से प्रेरित हो, तांत्रिक क्रियाओं हेतु कलश (कुम्भ) का सहारा लिया। नौ महिने बीत जाने के बाद भी जब बालक का जन्म नहीं हुआ तो राजमहल में बडी हलचल मची तो, बडी भटीयाणी रानी जो सौभाग्य देवी की हितैषी थी, को जब तांत्रिक क्रिया का पता लगा तो उन्होंने बाबा रामदेव से सम्पर्क किया। इस पर बाबा रामदेव ने बताया कि मेरा समाधी का समय नजदीक आ रहा है, इसलिये मैं मदारिया न आ पाऊंगा, मैं अपनी आध्यात्मिक शक्तियाँ मेरे काका धन स्वरूप जी को देकर मदारिया भेज रहा हूँ वे आकर आपकी समस्या का निराकरण करेंगे। कहते हैं बाबा रामदेव से आध्यात्मिक शक्तियाँ प्राप्त कर धनस्वरूप जी मदारिया आये एवं आते ही उन्होंने योजनाबद्ध रूप से उस कलश (कुम्भ) को जिसमें तान्त्रिक क्रिया कर रखी थी, हाडी रानी के हाथों से ही फुड़वा दिया। कहते है उस कलश (कुम्भ) के फटते ही बालक का जन्म हो गया। इसलिए उस बालक का नाम कुम्भा रखा गयायही बालक आगे चल कर महान पराक्रमी होकर मेवाड़ के स्वर्णिम युग के निर्माता बने। कहते है महाराणा कुम्भा विशालकाय थे। ऐसा माना जाता है कि उनकी कद काठी 7.5 से 8 फीट की थी। वे कुम्भलगढ़ स्थित शिव मंदिर जिसमें 8 फुट ऊँचा शिवलिंग है, उसमें वे बैठकर पूजा अर्चना व जलाभिषेक किया करते थे।
राज्याभिषेक एवं शासनकाल : महाराणा मोकल को बागोर के बाग में शिकार के समय महाराणा खेता की उप पत्नि (पासवान) से उत्पन्न पुत्रों चाचा, मेरा ने षड्यन्त्र पूर्वक मार देने के पश्चात् ज्येष्ठ पुत्र कुम्भा को सन् 1433 ई. को 17 वर्ष की अवस्था में गद्दीनशीन किया । महाराणा मोकल की मृत्यु से पूर्व ही मोकल के मामा रणमल मण्डोर चले गये थे। पुनः मेवाड़ आकर उन्होंने चाचा मेरा को मारकर मोकल की हत्या का बदला लिया । लेकिन शनैः शनैः मेवाड़ में उनका प्रभाव बढता चला गया । ऐसा देख विवेकवान कुम्भा ने अपने ताऊ रावत चुण्डा को माण्डू (मालवा) से वापस बुला लिया । चुण्डा के हाथों राव रणमल मारा गया। उसके पुत्रों को रावत चुण्डा ने चित्तौड़ से भगा दिया । आगे चल कर कुम्भा एक महानतम यौद्धा सिद्ध हुए । इतिहासकार डॉ. गौरीशंकर हिराचन्द ओझा के अनुसार महाराणा सांगा के साम्राज्य की नींव डालने वाले कोई और नहीं महाराणा कुम्भा थे।
विजय अभियान : राजगद्दी पर बैठते ही उन्होंने अपने विजय अभियान प्रारम्भ किये इसमें मालवा विजय, गुजरात विजय, मंडोर विजय, अजमेर विजय, नागौर विजय मुख्य हैं। इस प्रकार इस महानतम यौद्धा ने राजपूताने का अधिकांश भाग माण्डू (मालवा), गुजरात आदि राज्यों के भागों पर विजय प्राप्त कर मेवाड को एक महान साम्राज्य के रूप में परिवर्तित कर दिया एवं इतिहासकार डॉ. के. एस. गुप्ता के अनुसार "महाराणा कुम्भा ने मेवाड़ राज्य की वैज्ञानिक सीमाएं निर्धारित की।" कहते है महाराणा कुम्भा ने अपने 35 वर्षीय शासनकाल में लगभग 56 युद्ध लड़े एवं एक भी नहीं हारा। इसलिए फारसी इतिहास ग्रन्थ उन्हें हिन्दू सुरताण की यानि हिन्दूओं का बादशाह की उपमा से उपमीत करते हैं।
बहुआयामी व्यक्तित्व : महाराणा कुम्भा बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। जहां वे एक महानतम् यौद्धा थे, वहीं वे विद्यानुरागी, विद्वानों को आदर देने वाले साहित्य प्रेमी एवं साहित्यकार एवं विविध भाषाओं के ज्ञाता थे । महाराणा कुम्भा संगीत की तीनों विद्याओं गीत, वाद्य एवं नाट्य के विद्वान थे। कुम्भा ने संगीत मीमांसा, गीत गोविन्द, संगीत राज, सूड प्रबन्ध, संगीत रत्नाकर टीका, रसिक प्रिया, कामराज रतिसार, चण्डी शतक आदि ग्रन्थों की रचना की। एक विशेष बात, वे उस काल में भी स्त्री शिक्षा के बड़े पक्षधर थे। इसलिए कुम्भा की पुत्री रमा बाई संगीत शास्त्र की अनुपम ज्ञाता थी जिनके लिये वागीश्वरी उपनाम का प्रयोग हुआ है ।
राजस्थानी शिल्प के जनक (निर्माणों का पावन युग) : इसी प्रकार महाराणा कुम्भा शिल्प स्थापत्य के महान ज्ञाता थे। उन्होंने मेवाड़ के 84 दुर्गों में से 32 दुर्गों का निर्माण कराया- इसमें कुम्भलगढ़, आबू स्थित अचलगढ़ एवं सिरोही स्थित वसन्तगढ़ दुर्ग विशेष उल्लेखनीय है। चित्तौड़ दुर्ग पर कुम्भश्याम मंदिर, मालवा विजय के उपलक्ष में विजय स्तम्भ (जो राजस्थान पुलिस का प्रतीक चिन्ह है) एवं उसकी सातों पोलों (द्वार) का निर्माण भी कुम्भा द्वारा हुआ। प्रसिद्ध रणकपुर जैन मंदिर का निर्माण भी कुम्भा के शासन काल में हुआ। एकलिंग मंदिर का पुर्ननिर्माण भी कुम्भा काल में ही हुआ।
पूर्ण पुरूष कुम्भा : कुम्भा के इस महानतम् व्यक्तित्व के कारण फारसी व राजस्थानी ग्रन्थों में उन्हें अनेक उपाधियों जैसे हिन्दू सुरताण, राजगुरू, नाटकराज का कर्ता, धीमान, हालगुरू, राणा रासो, अभिनव भरताचार्य, शैल गुरू, नांदिकेश्वरावतार से उपमीत किया गया है। वे भगवान विष्णु के महान उपासक एवं भक्त थे। इस प्रकार वे अपने आप में 16 कलाओं एवं 64 विद्याओं से युक्त श्री कृष्ण समकक्ष पूर्ण पुरूष थे।
स्वर्गारोहण : प्रातः स्मरणीय यह महापुरूष माघ कृष्णा दशमी वि. सं. 1525 को अपनी लीला का संवरण कर परमगति को प्राप्त हुए।
महाराणा कुम्भा का शासन काल मेवाड़ इतिहास में स्वर्णिम युग के रूप में जाना जाता है एवं जाना जायेगा। इस महानतम् शासक एवं यौद्धा जिसे हम मेवाड़ निर्माता भी कहते है उनकी जन्मस्थली मदारिया आज भी शासन की दृष्टि से उपेक्षित है। यदि हम महाराणा कुम्भा जन्मभूमि पर एक भव्य स्मारक खड़ा करते है तो यह एक कृतज्ञ राष्ट्र की उस महान शासक व अप्रीतम यौद्धा को विनम्र श्रद्धान्जलि होगी।