अपनाई आयुर्वेदीय जीवनशैली तो रोग रहेंगे सदैव दूर :डॉ. दीप्ति शाह

राजसमंद। बदलती जीवनशैली और रोगों से बचाव में आज के युग में आयुर्वेद का मार्ग अपनाकर आप एक स्वस्थ जीवन की ओर बढ़ सकते हैं।राजसमंद की आयुर्वेद चिकित्साधिकारी डॉ. दीप्ति शाह (एम.डी. आयुर्वेद) बताती हैं कि आहार (भोजन) को आचार्य कश्यप द्वारा महाभैषज्य – सर्वोत्तम औषधि की संज्ञा दी गई है। अन्न ही सभी प्राणियों का प्राण है। वर्ण, पुष्टि, तुष्टि, बल, मेधा, सौंदर्य जैसे कई भाव आहार पर निर्भर हैं। हितकर (पथ्य) आहार शरीर की वृद्धि एवं पोषण करते हैं जबकि अहितकर (अपथ्य) आहार व्याधिकारक – बीमारी बढ़ाने वाले होते हैं।
हितकर पथ्य आहार में गोघृत, गोदुग्ध, तिलतेल, मिश्री, पुराना गुड़, मधु, गर्म राब, पराठे, कच्ची सब्जियां – मूली, गाजर, गोभी आदि, सेंधा नमक, मूंगदाल, पुराने चावल आदि हैं।
अपथ्य आहार, जो कम सेवन योग्य होते हैं, उनमें भैंस का घी, भैंस का दूध, भैंस का दही, खट्टी छाछ, मैदा, पहले से बने प्रिजर्वेटिव खाद्य पदार्थ – पिज्जा, ब्रेड, बर्गर, चाइनीज, सोयाबीन का तेल, नवीन कच्चा गुड़, सामान्य नमक आदि हैं।
आहार की सामान्य मात्रा व्यक्ति के शरीर के अनुरूप बदलती रहती है। इस हेतु आयुर्वेद शास्त्र में द्वादशाशन विचार अर्थात किसी व्यक्ति को कैसा आहार किस मात्रा में करना चाहिए, बताया गया है, यथा –
(1) स्निग्ध आहार – अत्यधिक रुक्ष एवं पतले व्यक्ति को, अति व्यायाम करने वाले व्यक्ति को करना चाहिए।
(2) रुक्ष आहार – स्थूल शरीर वाले, प्रमेही, उच्च रक्तचाप से ग्रसित व्यक्ति को करना चाहिए।
इसी प्रकार एककालिक, द्विकालिक, उष्ण आहार, शीत आहार, द्रव आहार, औषधि युक्त आहार आदि कई प्रकार के विचार बताए गए हैं।
यहां पर एक बात ध्यान देने योग्य है कि आहार द्वारा उचित पोषण प्राप्त करने के लिए जो कार्यकारी घटक है, उसे अग्नि से संबोधित किया गया है, वही हमारा मेटाबॉलिज्म है। किसी भी स्तर पर किसी भी प्रकार की अग्नि विकृति, शरीर में अपाचित घटकों की निर्मिति का कारण होती है, जिसे आम दोष कहते हैं और यही रोग जनन में प्रमुख कारण होता है। अतः स्वप्रकृति अनुसार आहार-विहार द्वारा अग्नि का संरक्षण करना अति आवश्यक है।
साथ ही हमें विशेषतः विरुद्ध आहार से बचना अति आवश्यक है क्योंकि यह अस्वास्थ्यकर होने से अयोग्य माने गए हैं। यह कई प्रकार के होते हैं, जैसे –
(1) देश विरुद्ध आहार – अर्थात रुक्ष क्षेत्र (राजस्थान) में रहने वालों को तीक्ष्ण एवं रुक्ष अन्न का सेवन, तथा आर्द्र क्षेत्र (दक्षिण भारत) में रहने वालों को शीत-स्निग्ध द्रव्यों का सेवन अल्प मात्रा में या नहीं किया जाना चाहिए।
(2) काल विरुद्ध आहार – ऋतुविशेष शिशिर तथा हेमंत में शीत एवं रुक्ष पदार्थ, जैसे आइसक्रीम, अंकुरित धान्य, सूखी दालों का सेवन नहीं करना चाहिए। बाल्यावस्था में कफवर्धक आहार जैसे अत्यधिक मिठाइयों एवं चॉकलेट के सेवन से बचते हुए अनुकूल आहार जैसे सोंठ, हल्दी एवं पाचक द्रव्यों का सेवन करना चाहिए। युवावस्था एवं प्रौढ़ावस्था में मसालेदार, कटु रसात्मक, पित्त प्रकोपक आहार को नहीं लेना चाहिए। वृद्धावस्था में वात प्रकोपक – अंकुरित धान्य का सेवन नहीं करें एवं यथासंभव गोघृत का अधिक प्रयोग करें।
(3) संस्कार विरुद्ध आहार – संस्कार विरुद्ध आहार में संग्रहण विधि, सेवन पद्धति, विविध आहार पदार्थों का एक-दूसरे के साथ मिलाने से होने वाले परिणाम आदि के बारे में वर्णन किया गया है, जो आहारीय पदार्थ को विरुद्ध आहार बना देता है। आचार्य सुश्रुत ने संस्कार विरुद्ध आहार में दही या छाछ को ताम्रपत्र में संग्रहित करना, चिकन एवं मछली को दही के साथ लिप्त करना, दही को गरम करने का निषेध किया है। गरम पदार्थों के साथ शहद का प्रयोग करना – जैसे बेकरी उत्पादों में गरम केक में शहद डालना – भी निषिद्ध है।
(4) वीर्य विरुद्ध आहार – उष्ण वीर्यात्मक आहार द्रव्य एवं शीत वीर्यात्मक आहार द्रव्य का संयोग वीर्य विरुद्ध आहार होता है। जैसे मलाई कोफ्ता बनाते समय अन्य घटकों के साथ काजू की पेस्ट का प्रयोग किया जाता है, जिसे बाद में क्रीम से सजाया जाता है। काजू उष्ण वीर्यात्मक एवं दूध से बनी क्रीम शीत वीर्यात्मक होने से, इस प्रकार बनाया गया मलाई कोफ्ता वीर्य विरुद्ध आहार बन जाता है।
(5) परिहार विरुद्ध आहार – परिहार विरुद्ध अर्थात जिसे खाना उचित न हो। जैसे वराह जैसे उष्ण गुणात्मक पशुओं के मांस सेवन के पश्चात् उष्ण द्रव्यों (शराब आदि) का सेवन करना। वैसे ही शीत गुणात्मक द्रव्य सेवन जैसे आइसक्रीम के पश्चात् शीत गुणात्मक द्रव्य (कोल्ड ड्रिंक) का सेवन करना।
स्किम्ड स्वीट कन्डेन्स्ड दूध का प्रयोग कर कई पाक विधियां प्रचलित हैं। वह स्निग्ध गुणात्मक होने से पचने में गुरु साबित होता है। इसलिए मिष्टान्न जो समारोहों में परोसे जाते हैं, उनके सेवन के पश्चात् शीतल जल का सेवन या आइसक्रीम खाना (स्निग्ध पदार्थ के पश्चात् शीत जल का सेवन) भी परिहार विरुद्ध आहार है।
(6) संयोग विरुद्ध आहार – अम्ल रस युक्त द्रव्यों को दूध के साथ प्रयोग करना संयोग विरुद्ध आहार कहा गया है। जैसे होटलों एवं जूस सेंटर्स में संतरा एवं अंगूर जैसे अम्ल फलों का दूध के साथ प्रयोग कर बनाया गया फ्रूट मिल्कशेक। सामान्यतः आम को छोड़कर सभी फलों का दूध के साथ प्रयोग करना संयोग विरुद्ध आहार है। दूध के साथ लवण (नमक) का प्रयोग करना, जैसे टोस्ट, बिस्किट एवं एनर्जी ड्रिंक (अर्थात वह पदार्थ जिनमें लवण उपस्थित है) का सेवन दूध या चाय के साथ करना। केला या ताड़ फल का सेवन दूध, दही या तक्र के साथ करना। शिकरण जैसा प्रसिद्ध महाराष्ट्रीय खाद्य पदार्थ, जो केले के टुकड़ों का दूध के साथ मिश्रण है, वह संयोग विरुद्ध आहार का उदाहरण है।
(7) हृदय विरुद्ध आहार – व्यक्ति को पसंद न आने वाले आहार का सेवन करना अहृद्य अर्थात हृदय विरुद्ध आहार कहलाता है। आजकल माता-पिता व्यवसाय में व्यस्त एवं पूरा दिन घर से बाहर रहने से, घर का खाना न मिलने के कारण नूडल्स, सॉल्टेड चिप्स जैसे पैकेज्ड खाद्य पदार्थ खाने की शुरुआत करते हैं और उनसे आसक्त हो जाते हैं। इनमें से अधिकतर खाद्य पदार्थों में अजीनोमोटो यह प्रमुख घटक होता है, जिसके कारण इन खाद्य पदार्थों की आदत लगती है। इन परिस्थितियों में बच्चों को घर पर बनाए खाने के प्रति अरुचि आती है, जिसके कारण घर का स्वास्थ्यपूर्ण भोजन अप्रिय लगता है और अस्वास्थ्यकर भोजन पसंदीदा प्रधान खाना बन जाता है। इसलिए घर पर बनाए खाने में विविध प्रकार के मसालों का प्रयोग कर उसे स्वादिष्ट बनाना चाहिए।
(8) संपद् विरुद्ध आहार – जिस आहार या औषध द्रव्य में रस पूर्णतः न उत्पन्न हुआ हो अथवा उत्पन्न होने के पश्चात् समाप्त हो गया हो या विपरीत गुणों वाला हो, ऐसे द्रव्यों का प्रयोग करना संपद् विरुद्ध कहलाता है। संपद् विरुद्ध आहार अपने प्राकृतिक गुणों एवं क्षमता से रहित होता है। केला, पपीता, आम एवं चीकू के अतिपक्व फल संपद् विरुद्ध आहार के उदाहरण हैं। आजकल रसायनों का प्रयोग कर फलों को कृत्रिम रूप से पकाया जाता है। यद्यपि वे कम समय में मधुर होते हैं, परंतु अपने स्वाभाविक गुणों एवं लाभों से वंचित रहते हैं।
(9) विधि विरुद्ध आहार – चरक आचार्य ने आहार (भोजन) करने की जो विधि बताई है, उसके विपरीत भोजन करना विधि विरुद्ध आहार कहलाता है। भोजन करते समय एक-दूसरे से बात करना, टीवी देखना, मोबाइल फोन का उपयोग करना आदि विधि विरुद्ध आहार के उदाहरण हैं, जो वर्तमान में बहुतायत से पाए जाते हैं।
इसी प्रकार अन्य विरुद्ध आहारों में अग्नि विरुद्ध, मात्रा विरुद्ध, सात्म्य विरुद्ध, कोष्ठ विरुद्ध, अवस्था विरुद्ध, क्रम विरुद्ध, पाक विरुद्ध आदि विशेष नियम भी बताए गए हैं।
आधुनिक जीवन शैली से रोग हो रहे आकर्षित :
डॉ. दीप्ति शाह (एम.डी. आयुर्वेद) बताती हैं कि आयुर्वेद शास्त्र के मूल सिद्धांत की प्रथम पंक्ति है – स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणं, अर्थात् स्वस्थ व्यक्ति को यथासंभव अपनी जीवनशैली, आहार-विहार से बीमार या रोगग्रस्त ही न होने दिया जाए। परंतु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आधुनिक जीवनशैली में समाज, परिवार और व्यक्ति इस मूल सिद्धांत को अनदेखा कर रहे हैं, जिससे पूरे जनसामान्य के सामने रोग रूपी समस्या का एक आवरण छा गया है, जिसका भेदन केवल और केवल प्रकृति के पास जाकर आयुर्वेदीय जीवनशैली को अपनाकर ही किया जा सकता है।
आयुर्वेद शास्त्र में वर्णित आयु को सम्यक रूप से प्राप्त करने के लिए तीन उपस्तंभ (साधन) बताए गए हैं – (1) आहार (अन्न), (2) निद्रा एवं (3) ब्रह्मचर्य। यही तीनों मिलकर हमारे पाचन, बल, रोग प्रतिरोधक क्षमता, मेटाबॉलिज्म (उपचय) एवं शरीर के विकास को नियंत्रित करते हैं।
