भक्ति केवल आराधना नही एक सम्पूर्ण जीवन दर्शन है-जिनेन्द्रमुनि
गोगुन्दा । श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ महावीर जैन गोशाला उमरणा में जिनेन्द्रमुनि मसा ने कहा कि भक्ति का अर्थ केवल इतना नही है कि कुछ माला जप ली जाए या कुछ स्तवन प्रार्थना बोल दी जाए।भक्ति का अर्थ बहुत व्यापक है।भक्ति एक सम्पूर्ण जीवन दर्शन है,जीवन विधि है।भक्ति का अर्थ परमात्मा से जुड़ना है।परमात्मा भौतिक रूप से हमारे सामने उपस्थित नही है।अतः भौतिक रूप से तो संबंध बनता नही,परमात्मा एक भाव है।एक विचार है,एक दृष्टि है,वह हम अपने आप मे प्राप्त कर सकते है।मुनि ने कहा कि एक प्रकाश है जो जीवन मे उदित हो सकता है।उसके उजाले से जीवन का प्रत्येक अंश जगमगा उठता है।भक्ति की शक्ति अनन्त है,यह आत्मा का उज्ज्वल चरित्र है।संत ने कहा दुष्कर्म और अधर्म ये जीवन मे तभी तक टिकते है जहां तक भक्ति का उदय नही होता है।भक्ति के जागरण के साथ ही पापो का पलायन प्रारम्भ हो जाता है।भक्त कोई अधर्म छोड़ता ही नही।भक्ति का प्रभाव ही वह होता है कि भक्त सद्कर्मो में ही संतुष्ट रहता है।भक्तिमान जो कुछ करता है,परमात्मा भाव से जुड़कर करता है।उसकी दृष्टि में महानता का ध्येय रहता है वह सर्वत्र परमात्मा भाव का अनुभव करता है।वह न किसी का शत्रु होता है और न किसी को शत्रु मानता है।विश्व मैत्री भक्ति का जागतिक परिणाम है जो भक्त को सहज प्राप्त हो जाता है।प्रवीण मुनि ने कहा प्रत्येक जीवन को स्वरूपतः परमात्मा मानकर उसके प्रति सद्व्यवहार करना भक्त का मौलिक स्वभाव बन जाता है।भक्ति का बाह्य रूप जो आज अनेक धर्म सम्प्रदायो में व्याप्त है भक्तो को चाहिए कि वे वही तक न रहे।भक्ति के गहरे अर्थ को समझकर उसका जो दर्शन है उसे आत्म सात करे।रितेश मुनि ने कहा कि भक्ति का दर्शन जीवन निर्माण की सात्विक प्रक्रिया है।अहंकार से मुक्त उच्च आदर्शो के लिए समर्पित होकर जीना यह भक्ति का रचनात्मक स्वरूप है।आज भक्ति के क्षेत्र में इसी रचनात्मक स्वरूप की आवश्यकता है।प्रभातमुनि ने कहा कि आज हमारे राष्ट्र में चरित्र निर्माण की प्रक्रिया धूमिल हो गई है।सच्चरित्र सम्पन आदर्श पीढ़ी के निर्माण करने में हम असफल हो रहे है तो इसका मुख्य कारण है अपने राष्ट्र में आस्था पूर्ण भक्ति के मौलिक स्वरूप का मन्द होना।मुनि ने कहा जितनी भक्ति कम होगी विभक्ति,विवाद ,संक्लेश और दुष्चरित्र बढ़ते जाएंगे।