मात्र स्वयं के सुख प्राप्ति और दु:ख मुक्ति का विचार स्वार्थ भाव है : जैनाचार्य विजय रत्नसेन सूरीश्वर

उदयपुर। जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेन सूरीश्वरजी महाराज आदि ठाणा 5 साधु भगवंत नवरतन कॉम्पलेक्स से विहार कर श्री धर्मनाथ जैन संघ जम्बुद्विप टावर-भुवाणा में विहार किया। श्री संघ के द्वारा गाजते-बाजते प्रथम बार पधारे जैनाचार्य श्री का भावभरा हार्दिक स्वागत किया।
कोषाध्यक्ष राजेश जावरिया ने बताया कि धर्मसभा में प्रवचन देते हुए जैनाचार्य श्री ने कहा कि विज्ञान के अनुसार जिस व्यक्ति का हृदय चौड़ा हो जाता है, वह लम्बे समय तक जीवन नहीं जी सकता है। परंतु धर्म के अनुसार जीवन में धर्म की शुरुआत हृदय विशाल बनने के बाद ही होती है। हृदय विशाल होना अर्थात् मात्र अपने सुख का विचार नहीं, बल्कि अन्य के सुख का विचार करना। अपने सुख का विचार तो हर कोई करता है। परंतु महान वही बनता है, जो मात्र अपने नहीं बल्कि सभी के सुख का विचार करता है। जगत् के सभी जीव सुख पाना चाहते है और दु:ख से दूर रहना चाहते है। लेकिन जो मात्र अपने सुख प्राप्ति और दु:ख मुक्ति का विचार करता है वह स्वार्थी कहलाता है। स्वयं के स्थान पर सर्व का विचार आना अति कठिन है। जो सभी जीवों के सुख प्राप्ति और दु:ख मुक्ति का विचार करता है, वही परोपकारी कहलाता है। जीवन में जब तक स्वार्थ वृत्ति रही है और परोपकार वृत्ति पैदा नहीं हुई है. तब तक धर्म का प्रवेश नहीं हो पाता है। इसलिए धर्म का पहला कदम दान धर्म है। सद्गृहस्थ को प्राप्त हुई एक रोटी में से पाव रोटी का भी दान अवश्य करना चाहिए। सामग्री होने पर भी जो दान नहीं करता है, वह यदि प्रतिदिन ताजा भोजन करता हो तो भी कहा जाएगा कि "यह बासी खाता है।" भावार्थ यह है कि जो इस जन्म में सुख-समृद्धि की सामग्रियों प्राप्त हुई है वह गत जन्म के सत्कार्यों से हुई है। यदि इस जन्म में कोई सत्कार्य नहीं होंगे तो अगले जन्म में खाली हाथ ही जाना पड़ेगा। अत: प्रतिदिन कुछ-न-कुछ दान अवश्य करना चाहिए। इस अवसर पर महासभा के महामंत्री कुलदीप नाहर, कोषाध्यक्ष राजेश जावरिया, डॉ. शैलेन्द्र हिरण, महावीर रांका, जसवंतसिंह सुराणा, रवि मोर्डिया, दिनेश कोठारी, अनिल सिंघठवाडिया, आलोक भट्ट, गिरीश खाब्या, आदि की इस प्रसंग पर उपस्थिति रही ।