जीव बिना शरीर का कोई मूल्य नहीं, सुगंध बिना फूल की कोई कीमत नहीं : जैनाचार्य महाराज

उदयपुर,। श्री महावीर जैन विद्यालय - चित्रकूट नगर में भद्रंकर परिवार द्वारा आयोजित सामूहिक उपधान तप बड़े उत्साह से चल रहा है। धर्मसभा में प्रवचन देते हुए मरुधर रत्न आचार्य रत्नसेनसूरी महाराज ने कहा कि दान-शील और तप के अभाव में भी भाव धर्म मोक्ष का कारण बन सकता है परन्तु भाव के अभाव में दान आदि धर्म निष्फल कहे गए हैं। सिद्ध रस के संयोग से लोहा सोना बन जाता है। नमक के प्रयोग से भोजन स्वादिष्ट बन जाता है, उसी प्रकार भाव के संयोग से धर्म मोक्ष रूपी लक्ष्मी प्रदान करने वाला होता है। संसार के भौतिक सुखों का त्याग किए बिना, मुद्रिका रहित अपनी अंगुली को देखकर अनित्य भावना का विचार करते हुए भरत महाराजा को आरिसा भवन में केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी । भावपूर्वक किया गया धर्म जीवात्मा को इसलोक ओर परलोक के सुख के लाभ के लिए होता है। जीव बिना शरीर (कलेवर) का कोई मूल्य नहीं । सुगंध बिना फूल की कोई कीमत नहीं । जड़ बिना वृक्ष का अस्तित्व नहीं, बस, इसी प्रकार भाव बिना धर्म नहीं । दान आदि क्रियाएँ अपने वास्तविक फल को देने में तभी समर्थ बनती हैं, जब उनके साथ भाव जुड़ा हो । भाव रहित चाहे कितनी ही क्रियाएँ की जॉय, वे क्रियाएँ मोक्ष नहीं दे सकती है। दान भी दान धर्म तभी बनता है, जब उसके साथ भाव जुड़ा हुआ हो । शील और तप भी तभी धर्म बनते हैं, जब उनके साथ भाव जुड़ा हो । जिनेश्वर भगवंतों ने धन की आसक्ति तोडऩे के लिए दान धर्म बतलाया है, अत: दान देते समय दाता के दिल में यह भाव हो कि इस दान के प्रभाव से मेरी अन्तरात्मा में रही धन की मूच्र्छा दूर हो तभी वह दान, दान धर्म कहलाता है। नाम, यश, कीर्ति आदि की इच्छा से या परलोक में देव देवेन्द्र या चक्रवर्ती पद को पाने की लालसा से धार्मिक भी अनुष्ठान किया जाय तो वह अनुष्ठान क्रमश: विष और गरल अनुष्ठान बन जाता है, अत: प्रत्येक धर्मानुष्ठान के पीछे मुक्ति की तीव्र अभिलाषा का भाव अवश्य होना चाहिए । देह की अनित्यता का विचार करते-करते भरत महाराजा इतने भाव-विभोर हो गए कि (आरिसा भवन) में ही उन्हें केवलज्ञान हो गया था । अस्ताचल की ओर आगे बढ़ रहे सूर्य को देखकर पवनपुत्र हनुमान संसार से विरक्त हो गए थे। जो जल रहा है, वह मेरा नहीं और जो मेरा है, वह कभी जलने वाला नहीं । इस प्रकार अन्यत्व भावना में लयलीन बने गजसुकुमाल मुनि साधना के शिखर पर पहुँच गए और सदा के लिए बन्धन-मुक्त हो गए । मैं अकेला, अकेला आया हूँ और अकेला ही जाने वाला हूँ, इस एकत्व भावना में मग्न बने अनाथी मुनि ने युवावस्था में संसार का त्याग कर दिया और संसार के बंधन में से मुक्त बन गए । देह की अशुचि / दुर्गन्धता का दर्शन कराकर राजकुमारी मल्लिकुमारी ने स्वयं पर मुग्ध छह राजकुमारों को वैराग्य-भावना से रंजित कर दिया था ।
