हो ‘परिपक्व‘ खोलों खाता-बही...!

‘कुढ़-कुढ़‘ के ही क्यों? है जीना,
गम के आँसू क्यों हरदम पीना।
अपने ही व्यक्ति को दोष देना,
अपना रोना हरेक बार ही रोना।
जब था दम क्यों? न बढे़ कदम,
अब ‘रंज‘ ना कर न ढ़ा सितम।
‘कुढ़-कुढ़‘ के ही क्यों? है जीना,
गम के आँसू क्यों हरदम पीना।
हर कोई ‘सिद्ध‘ हस्त नहीं होता,
शिक्षा ली उसकी तरंग न खोता।
तू कब होगा ‘बड़ा‘ शरीर से नहीं,
हो ‘परिपक्व‘ खोलों खाता-बही।
‘कुढ़-कुढ़‘ के ही क्यों? है जीना,
गम के आँसू क्यों हरदम पीना।
उम्र अभी-भी है बहुत-सी जाकी,
सुख-चैन की बाँसूरी बजा साकी।
‘चल‘ निकल पड़ दिखा दें झाँकी,
कर कुछ ऐसा कसर न रहे बाकी।
संजय एम तराणेकर
Next Story