माँग में सिंदूर लो हो गईं दूर

माँग में सिंदूर लो हो गईं दूर
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एक बार ही देखा वो मेरे लिए अजनबी थी,

मुझे ऐसा लगता था कि मेरे लिए सही थी।

हा, उसका यू खिल-खिलाकर चले जाना,

मासूम चेहरा लिए दांतों में उंगली दबाना!

खूब होता था उसका ये अंदाज शायराना।

एक बार ही देखा वो मेरे लिए अजनबी थी,

मुझे ऐसा लगता था कि मेरे लिए सही थी।

एक बारगी मन में आया फोटो तो खींच लूं,

वो बहुत दूर थीं लगता था बाँहों में भींच लूँ,

ख़्वाबों में वह मेरी ज़मीं थी जिसे मैं सींच लूं।

एक बार ही देखा वो मेरे लिए अजनबी थी,

मुझे ऐसा लगता था कि मेरे लिए सही थी।

मैं एक दिन जा रहा हँसते-हँसते अपने रस्ते,

दिखा मुझे वही चेहरा कर दिया मैंने नमस्ते!

माथे पे बिंदिया माँग में सिंदूर लो हो गईं दूर।

संजय एम. तराणेकर

(कवि, लेखक व समीक्षक)

इंदौर (मध्यप्रदेश)

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