पानी रे पानी , कहा हे पानी: न तालाब में न बावड़ी में और न ही अब आखों में पानी

न तालाब में न बावड़ी में और न ही अब आखों में पानी
X

सहीराम

पानी नहीं है जी। कहीं नहीं। धरती पर नदियों में नहीं, झरनों में नहीं, जोहड़ों-तालाबों में नहीं, जल स्रोतों में नहीं, जलाशयों में नहीं। धरती के नीचे कुओं में नहीं। बावड़ियां अब होती नहीं। पहले जब कहीं पानी नहीं होता था, तो आंखों में तो जरूर होता था। कहते हैं संवेदनाओं की तरह होता था, पीड़ा की तरह होता था, दर्द की तरह होता था, शर्म की तरह होता था। अब आंखों में भी नहीं बचा। जब संवेदनाएं ही नहीं बची तो पानी कहां बचेगा। पहले पानी की प्याऊ थी, पानी पिलाना धर्म का काम था, इंसानियत का काम था। अब पानी बोतल में बंद है, उस राजकुमारी की तरह, जो जालिम जादूगर के पिंजरे में बंद होती है। अब पानी पैसा है और इसलिए उसकी प्यास लालच वाली है, हवस वाली है।

प्यास-प्यास में भी फर्क होता है। और प्यास है कि बुझती ही नहीं। न आम आदमी की बुझ रही है पानी से और न पैसे वालों की बुझ रह रही है मुनाफे से। पैसे की प्यास कभी मिटती नहीं, बुझती नहीं। वह लालच की तरह बढ़ती ही जाती है। जी हां, पानी तो है, लेकिन वो बोतल में बंद है। उस बोतल ने सारे झरने चूस लिए, उसने सारी नदियां चूस ली और अब आम आदमी का खून चूस रही है। पानी तो है, लेकिन कोला की बोतल में है। इस कोला ने धरती का सारा पानी चूस लिया है। पानी तो है, लेकिन बीयर की बोतलों में है। पीने का पानी कहीं नहीं है।

पहले घड़ों में पानी होता था। आदमी शर्मसार होता था, तो उस पर घड़ों पानी पड़ जाता था। लेकिन अब तो पानी उम्मीदों पर भी नहीं फिरता। उम्मीदों पर भी अब तो गाज ही गिरती है। पहले और कुछ नहीं तो पाप का घड़ा तो जरूर भरता था। अब पापी चिकने घड़े हो गए हैं, उन पर एक बूंद पानी नहीं ठहरता। पानी है ही नहीं, नहीं तो फिर जाता। पहले आदमी शर्म से भी पानी-पानी होता था। लेकिन अब शर्म कहां होती है, बेशर्मी दीदादिलेरी से होती है। अब तो हर तरह के बदमाशों और बेशर्मों की मौज आ गयी है। क्योंकि ताना देने पर वे कह सकते हैं कि चुल्लू में पानी कहां है डूब मरने के लिए, इसलिए अब हम तुम्हारी छाती पर मंूग ही दलेंगे।

अब पानी जैसे शर्म का साथ छोड़ गया, वैसे ही घड़ों का साथ भी छोड़ गया। उधर मौका देखकर घड़ों ने भी विरोधी दलों से गठजोड़ कर लिया है। अब वे विरोधी दलों के हाथों में होते हैं और अंततः सरकारी कार्यालयों पर फूटते हैं। घड़ों की किस्मत में अब फूटना ही लिखा है, भरना नहीं। पानी अब युद्ध है, पानी अब युद्ध का हथियार है। राजनीति में वह विरोधियों के हाथों का हथियार बन जाता है। लोग तो कह रहे हैं कि तीसरा विश्वयुद्ध भी पानी के लिए ही होगा। हमारे यहां छोटे-छोटे युद्ध तो हो ही रहे हैं।

Next Story