सबसे हारे देसी दवा के सहारे…क्या अब आयुर्वेद इलाज की ओर लौट रहे लोग?

By :  vijay
Update: 2024-11-22 18:58 GMT

कोविड में 60 फीसदी लंग इंन्फेक्शन झेलकर मौत के मुंह से वापस लौटे अमित चौधरी को ठीक होने के बाद भी सांस की परेशानी रहती थी. एलोपैथी में तमाम डॉक्टर और दवाएं बदलकर उन्होंने आयुर्वेंद की शरण ली. एक आयुर्वेद आश्रम में 15 दिन जाकर ठहरे. अमित कहते हैं, आज तीन साल हो गए, योग आयुर्वेद के उनके जीवन में आने के बाद कभी उन्हें सांस की दिक्कत नहीं आई.

मानसिक तनाव और डिप्रेशन से जूझ रही मंदिरा का डाइजेशन सिस्टम बिल्कुल चरमरा गया था और वो दो साल से नींद की गोलियां भी खा रही थीं लेकिन ऐसे ही किसी की सलाह पर जब उन्होनें भी आयुर्वेद और पंचकर्मा का सहारा लिया तो उनके आईबीएस यानी इरीटेटिंग बॉल सिंड्रोम की परेशानी बिल्कुल ठीक हो गई और नींद के लिए भी उन्होंने दवाओं का सहारा लेना छोड़ दिया.

अमित और मंदिरा तो महज दो उदाहरण हैं. कोरोना के हाहाकार और उस दौरान मेडिकल का कन्फ्यूज़न झेल चुके कई लोग अब तो छोटी सी छोटी और बड़ी बीमारियों के लिए पहले आयुर्वेद का ही मुंह ताकते हैं.

आयुर्वेद एलोपैथी से किस तरह से अलग?

आयुर्वेदाचार्य डॉ रश्मि चतुर्वेदी बताती हैं, आयुर्वेद केवल ये नहीं है कि कोई बीमारी हो गई तो उसे कैसे ट्रीट करना है, जैसे एलोपैथी में होता है. एलोपैथी में अगर आपको पेट दर्द है तो दर्द की दवा दे दी जाती है. जबकि आयुर्वेद में किसी भी बीमारी का इलाज किया जाता है तो उसमें देखा जाता है कि बीमारी क्यों हुई? उसके कारण पर काम किया जाता है.

आयुर्वेद का उद्देश्य

स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणं, आतुरस्य विकार प्रशमनं’

आयुर्वेद की संहिता में दो उद्देश्य बताए गए हैं. पहला, जो स्वस्थ हैं, उनको स्वस्थ रखना ताकि कोई बीमारी हो ही ना. दूसरा, अगर किसी को कोई रोग हो गया है तो उसे कैसे ठीक करना है.

इसमें केवल लक्षण के आधार पर इलाज नहीं किया जाता है बल्कि इसमें ये भी देखा जाता है कि आखिर बीमारी क्यों हुई. अगर दो रोगियों का बीपी बढ़ा हुआ है तो दोनों के बीपी बढ़ने के कारण अलग हो सकते हैं. इसमें हो सकता है कि किसी का वात दोष की वजह से बीपी हाई हुआ हो और किसी का पित्त दोष की वजह से बीपी हाई हुआ हो. ऐसे में इन दोनों का एक ही तरीके से इलाज नहीं किया जा सकता है.

तीन दोषों से मिलकर बना है शरीर

हमारा शरीर तीन दोषों से मिलकर बना है. वो वात, पित्त और कफ है. अगर ये तीनों दोष बैलेंस हैं, तो हम लोग स्वस्थ रहते हैं. अगर इसमें से किसी का इंबैलेंस होता है तो कोई ना कोई बीमारी हो जाती है. जिस तरह से पृथ्वी पंचमहाभूतों से मिलकर बनी है, इसी तरह हमारा शरीर भी पंचमहाभूतों से मिलकर बना है.

वात दोष: जैसे हवा चल रही है, हवा की वजह से गति होती है. हमारी बॉडी में वात दोष हवा को डिनोट करता है. अगर शरीर में कोई मूवमेंट होता है तो वो वात दोष से कंसर्न रहेगी.

पित्त दोष: डाइजेशन से रिलेटेड कोई भी इशू रहता है तो वो अग्नि महाभूत का रहता है. जैसे कच्चे फल सूरज की गर्मी से पकते हैं, वैसे ही पाचन क्रिया तेज महाभूत की वजह से होती है. इसी तरह से हमारे शरीर में पित्त दोष रहता है. जो आग और तेज से मिलकर बना है. जो पाचन के लिए काम करता है .

कफ दोष: पृथ्वी का काम जैसे धारण करना होता है, इसी तरह से हमारे शरीर में जो धारण करने का काम होता है, वो कफ दोष का रहता है.

आयुर्वेद में इलाज का तरीका

आजकल लोग साल या छह महीने में डी-टॉक्सिफिकेशन के लिए भी वैलनेस सेंटर या योग आश्रम जाते हैं. इसलिए पंचकर्मा को कई बार बस डी-टॉक्सीफिकेशन ही मान लिया जाता है लेकिन आयुर्वेद इज मच मोर देन डी-टॉक्सीफिकेशन.

आयुर्वेद में शमन और शोधन दो तरह की चिकित्सा होती है. शमन और शोधन चिकित्सा को ऐसे समझा जा सकता है कि अगर किसी का कपड़ा हल्का गंदा होता है तो आप उसे नाजुक ब्रश से साफ कर देते हैं, इसी प्रक्रिया को शमन कहा जाता है. वहीं, जैसे आपके कपड़े पर बहुत ज्यादा दाग पड़ जाते हैं तो आप उसे लाउंड्री में धोने के लिए भेज देते हो, इसे ही शोधन चिकित्सा कहा जाता है. शोधन का मतलब होता है कि बॉडी की क्लींजिंग करना, जिससे सारा टॉक्सिन बाहर आ जाए.

अगर किसी का शरीर दोषों से भरा हुआ है, उसको शमन चिकित्सा से ठीक किया जाता है. अगर किसी की बॉडी में टॉक्सिन है तो उसे बाहर निकाला जाता है क्योंकि जब तक टॉक्सिन को बाहर नहीं निकाला जायेगा, मरीज जल्दी से ठीक नहीं होगा. जिस तरह से घर में कोई भी नई चीज लेकर आते हैं तो हमें जहां जो चीज रखनी होती है, उसे साफ करते हैं. इसी तरह से हम जब तक शरीर की पूरी शुद्ध नहीं करेंगे, तब तक शमन चिकित्सा इतनी इफेक्टिव नहीं रहेगी.

शमन– शमन में केवल दवाइयों के द्वारा रोगों को ठीक किया जाता है. ये दवाइयां हर्बो मिनरल होती हैं, काढ़े और क्वाथ होते हैं . दवाइयां हर्ब की बनी होती हैं या मिनरल मेडिसिन होती हैं जो रसायनशाला में आ जाती हैं, जैसे अलग अलग भस्में जैसे गोल्ड भस्म, रजत भस्म, ताम्र भस्म.

शोधन – शोधन में शरीर की अंदर से शुद्धि पंचकर्म से होती है

पंचकर्म क्या है?

पंचकर्म पद्धति आयुर्वेदिक चिकित्सा की सबसे पुरानी पद्धतियों में से एक है. पंचकर्म का अर्थ पांच क्रियाएं हैं. इन्हीं पांच चरणों से बॉडी से टॉक्सिन को बाहर किया जाता है. ये पांच कर्म, वामन, विरेचन, वस्ति, नस्य और रक्तमोक्षण हैं.

वमन: इसमें वोमिटिंग के जरिए क्लींजिंग कराई जाती है.

विरेचन: इसमें लूज मोशन के जरिए बॉडी को साफ किया जाता है.

नस्य: इसमें नाक से दवा डालते हैं, जो सीधा नर्वस सिस्टम पर काम करती है क्योंकि नाक ही हमारे सिर का द्वार होता है.

रक्तमोक्षण: अगर किसी के शरीर में गंदा खून जमा हो गया है तो उसे शरीर से बाहर निकाला जाता है. इसमें अगर किसी का पित्त एक जगह बहुत बड़ा हुआ है या फिर स्क्रीन में कोई प्रॉब्लम है, उस जगह पर हम जलोका लगाते हैं. इससे जो भी गंदा खून होता है, वो लीच लगाकर बाहर खींच लेती है.

रक्तमोक्षण में ही वीनस पंचर भी किया जाता है. शरीर में जहां भी पता चलता है कि वहां पर रक्त जमा है तो वहां से पंचर करके थोड़ा सा ब्लड निकाल देते हैं.

वस्ति: ये मेडिकेटेड एनिमा होता है. जिस तरह से हम एनिमा देते हैं, इस तरह इसमें भी होता है लेकिन इसमें दूसरे द्रव्य डाले जाते हैं. जैसे अनुवासन वस्ति में तेल एनिमा दिया जाता है. अस्थापना वस्ति में रोग के हिसाब से मेडिसिन लेकर काढ़ा बनाया जाता है फिर उसी काढ़े का एनिमा दिया जाता है और क्लींजिंग कराई जाती है.

क्या देर से असर करता है आयुर्वेद ?

महर्षि डॉक्टर राजेश योगी कहते हैं, आयुर्वेद देव चिकित्सा है इसमें चिकित्सक का भी भाव वैसा होना चाहिए और रोगी का भी. आयुर्वेद उन पर काम नहीं करता जो पथ्य यानि रोग के हिसाब से खाने का ध्यान नहीं रखते. जो पथ्य का ध्यान रखते हैं उन पर पहले दिन से काम करता है.

डॉ आंचल माहेश्वरी कहती हैं, बीमारी बढ़ने पर एक्यूट केस में आएंगे तो समय लगेगा ही. अगर वो समय पर हमारे पास आ जाएं तो पहले दिन से ही असर देखने को मिलेगा.

डॉ रश्मि कहती हैं, ये ट्रेंड चल गया कि ये पद्धति पुरानी, रुढ़िवादी है. हालांकि, अब लोग अपनी रूट की ओर वापस आ रहे हैं. इससे आयुर्वेद को बढ़ावा मिल रहा है. आयुर्वेद पद्धति में जो भी बताया गया है, वो साइंटिफिक है.

बड़ी बीमारियों के लिए कितना असरदार आयुर्वेद?

डॉ रश्मि चतुर्वेदी कहती हैं, डी-टॉक्सिफिकेशन तो अभी ज्यादा पॉपुलर हुआ है, इससे पहले ज्यादा लोग जानते नहीं थे. साउथ में लोग आयुर्वेद को फर्स्ट प्रेफरेंस देते हैं, उन्हें कोई दिक्कत होती है तो वो सबसे पहले आयुर्वेदिक डॉक्टर के पास ही जाते हैं. इतनी अवेयरनेस अभी नॉर्थ में नहीं है. यहां पर लोग अभी भी आयुर्वेद को सेकंड प्रेफरेंस दे रहे हैं.

दरअसल, पहले लोग एलोपैथी में ही जाते हैं, जब उन्हें लगता है कि आराम नहीं हो रहा है या एलोपैथिक दवाइयों के साइड इफेक्ट हो रहे हैं तो वो आयुर्वेद की ओर आते हैं. अगर आप समय से आयुर्वेद की ओर आते हैं तो ना तो आपको साइड इफेक्ट होंगे, और ना ही आप बीमारे के एडवांस स्टेज तक पहुंचेंगे. कारण ये है कि आयुर्वेद में हर बीमारी के जड़ पर काम किया जाता है. जिससे आदमी रोग मुक्त हो जाता है.


किन बड़ी बीमारियों का इलाज आयुर्वेद में संभव?

पतंजलि योगग्राम में आयुर्वेद के डॉक्टर अनुराग बताते हैं कि ऐसी कोई बीमारी नहीं है, जिसका इलाज आयुर्वेद में संभव नहीं है. आयुर्वेद में बॉडी की प्रकृति और दोषों के अनुसार ही काम किया जाता है. जिस चीज से आपकी बॉडी बनी है, इस पर अगर आप काम करोगे तो कोई ऐसी बीमारी नहीं है, जिसका इलाज न किया जा सके क्योंकि उन्हीं दोषों के इंबैलेंस होने से बीमारी हो रही है.

डॉ आंचल माहेश्वरी कहती हैं जितने भी ऑटो इम्यून डिसऑर्डर हैं, अर्थराइटिस, स्किन डिसऑर्डर, उन पर आयुर्वेद का अच्छा असर होता है. जितने भी गैस्ट्रिक, गट और पेट से संबधित बीमारियों के मरीज हैं, डाइजेशन के इशू, जोड़ों के दर्द के मामले में ये दवाएं बहुत अच्छा काम करती हैं.

यहां तक कि कैंसर और ट्यूमर के लिए भी रिवर्सल ट्रीटमेंट आयुर्वेद में है. अगर किसी को फर्स्ट स्टेज कैंसर है तो मरीज़ की कंडीशन पर रिवर्सल होने के चांस रहते हैं. मरीज की इम्यूनिटी कैसी है और वो कैसे रिस्पांस कर रहा है, अगर हम क्लींजिंग कर देते हैं तो बॉडी में बहुत कुछ ठीक हो जाता है क्योंकि आपने एक तरह से टॉक्सिन को बाहर निकाल दिया है. उसके बाद जो बची हुई चीज होती है, उस पर बैलेंसिंग का काम किया जाता है.

आयुर्वेद में शल्य चिकित्सा

पूर्व मेडिकल अफसर, लेक्चरर, हरिद्वार में शल्य तंत्र विभाग के प्रोफेसर और सर्जन डॉक्टर सुनील जोशी बताते हैं. आयुर्वेद में सर्जरी का भी इतिहास है. विश्व की सबसे प्राचीनतम शल्य चिकित्सा की किताब सुश्रुत संहिता है. जितने भी प्रोसीजर आज दुनिया में होते हैं, ये आयुर्वेद का ही सिंपल ट्रांसलिट्रेशन है. इसमें आठ प्रोसीजर किए जाते हैं.

जिसमें तीन मुख्य हैं, प्री-ऑपरेटिव, ऑपरेटिव और पोस्ट-ऑपरेटिव.

प्री-ऑपरेटिव: ऑपरेशन के पहले जो करते हैं, उसे प्री-ऑपरेटिव कहा जाता है.

ऑपरेटिव: इसमें आठ कर्म होते हैं. उसमें छेदन, भेदन, लेखन, अहारण, व्याधना, श्रवण, ईसन और सेवन है. ये जितनी भी प्रक्रिया हैं, वो सब सुश्रुत संहिता में हैं.

पोस्ट-ऑपरेटिव: सर्जरी के तुरंत बाद आपको जो देखभाल दी जाती है, उसे पोस्ट-ऑपरेटिव कहते हैं.

सुश्रुत हैं राइनोप्लास्टी के जनक

इंडियन मेथड ऑफ राइनोप्लास्टी दुनिया में हर जगह फॉलो की जाती है. राइनोप्लास्टिक का एक सिमिलर ऑपरेशन लंदन की एक मैगजीन में छपा था. उसमें लिखा है कि पहली बार वहां के लोगों ने देखा कि भारत के जो डॉक्टर हैं या जो हीलर हैं, वो कटी हुई नाक को दोबारा से बनाते थे. वर्ल्ड वाइड जो प्लास्टिक सर्जरी के जनक माने जाते हैं, वो सुश्रुत हैं. जब प्लास्टिक सर्जरी के फादर वो हैं तो रिमेनिंग ब्रांच के फादर वह स्वतः ही हो गए.

प्राचीन समय में ऑपरेशन के इक्विपमेंट

डॉक्टर सुनील जोशी कहते हैं कि उस समय जो टेक्निक थी, आज भी वो नहीं है.आज हम बॉयल करके इक्विपमेंट इस्तेमाल करते हैं और पहले जो इक्विपमेंट होते थे, उन्हें कई तरह की विधियों से साफ किया जाता था. पहले के ज्यादातर इक्विपमेंट सोने चांदी और विभिन्न धातुओं के रहते थे. आजकल की तरह स्टील, फाइबर और प्लास्टिक के इक्विपमेंट नहीं होते थे.

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