भौतिक समृद्धि की अधिक अभिलाषा व्यक्ति के प्राप्त सुखो का भी हरण कर लेती है-जिनेन्द्रमुनि मसा*

By :  vijay
Update: 2024-10-21 10:52 GMT

गोगुन्दा लोभ के कारण संसार मे समस्त पापो की उत्तपत्ति होती है।लोभ का ही दूसरा नाम लालच है।लालच से सारे गुण नष्ट हो जाते है और उसका स्थान ग्रहण कर लेते है क्रोध द्वेष ,मान आदि।शायद ही कोई ऐसा पाप बचता हो जो लालच से पैदा न होता हो।कोई दुर्गुण शेष नही रहता जो लालची व्यक्ति में न हो।इसलिए लालच को सभी महान आत्माओ ने तमाम संकटो की जननी और तमाम अनर्थो का आश्रय कहा है।मुनि ने कहा जिस मनुष्य के अंतः करण में लालच का दैत्य एक बार प्रवेश कर गया,उसके लिए फिर जघन्य से जघन्य पाप कर डालना असम्भव नही रहता।आज का मानव दिन ब दिन अधिकाधिक लोभी होता ज रहा है।अपनी यश लिप्सा संसार के समस्त सुख साधनों और उसकी प्राप्ति के माध्यम अर्थ धन की सिद्धि में वह इतना बेहोश हो जाता है कि वह पाप करने में पीछे नही हटता है।अभिलाषा विकृत रूप है।अधिक प्राप्त करने की अभिलाषा बुरी नही है।मानव मात्र का ही नही,प्राणिमात्र का स्वभाव है कि वह अल्प से अधिक की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर हो।किन्तु उसकी इस प्राप्ति कामना में सदाशयता होनी आवश्यक है।संत ने कहा भौतिक समृद्धि की अधिक अभिलाषा व्यक्ति के प्राप्त सुखों का भी हरण कर लेती है।भौतिक जीवन की हमारी आवश्यकताए भी अधिक नही है।प्रवीण मुनि ने कहा जिनप्राणित धर्म देह का धर्म नही है,वह तुम्हारा धर्म है।तुम आत्मा हो,शरीर नही हो,इसलिए वह तुम्हारा यानी आत्मा का धर्म है।मुनि ने कहा जो आत्मा का स्वभाव है।वही आत्मा का धर्म है।शरीर को शुद्ध रखना,जाड़ो में ऊनी वस्त्र पहनना, गर्मी में शीतलता प्राप्त करके शरीर को सुख देना, यह सब शरीर के बाह्य धर्म है।रितेश मुनि ने कहा कि जैसे लोभ तृष्णा का पुत्र है,वैसे ही सुख संतोष का पुत्र है।सभी संत हमारे देश का गौरव है और धर्म की सुरभि उन्ही से बिखरती आई है।संतोष धन आते ही उपयुक्त सभी धन धूल के समान तुच्छ हो जाते है।मुनि ने कहा वैदिक धर्म मे नौ भक्तिया मानी गई है ।राम जब शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश देते है तो पहली भक्ति संतो का संग बताते है।प्रभातमुनि ने कहा कि जीवन मे कर्म का महत्वपूर्ण स्थान है।कर्म का अभिप्राय है क्रिया,कार्य करना।ये कर्म ही हमे समाज मे ऊंच और नीच का स्थान प्रदान करते है।यदि हम अच्छे कर्म करेंगे तो उसका फल भी अच्छा ही होगा।अच्छे कर्म का फल अच्छा होता है और बुरे कर्म का फल बुरा।रावण के घृणित कर्म ने उसे गिरा दिया।वह उच्च से निम्न हो गया।राक्षस जाति जो कि रक्ष शब्द से बनी है,यानी जो दूसरों की रक्षा करता है वही राक्षस होता है।लेकिन रावण के शूद्र कर्म ने सम्पूर्ण राक्षस जाति को ही अपमानित कर दिया।आज हम देख रहे है कि दूसरों को सताने वाला राक्षस कहलाने लगा है।आज विश्व में करोड़ो लोग रह रहे है,लेकिन राम के समान हर परिस्थिति में धैर्य धारण करने वाले आदर्श व्यक्ति कम ही मिलेंगे।

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