मोदी मैजिक, केजरीवाल करिश्मा और शीला की विरासत के मुकाबले से निकलेगी भावी सियासत
नए साल 2025 के पहले सप्ताह में ही दिल्ली विधानसभा के चुनावों की घोषणा हो गई। दिल्ली कहने को तो अर्द्ध राज्य है जहां मुख्यमंत्री से ज्यादा उपराज्यपाल की चलती है, लेकिन दिल्ली की सियासत ऐसी है जो देश की राजनीति पर गहरा असर डालती है। 1993 में हुए दिल्ली विधानसभा के पहले चुनाव भाजपा ने जीते और 1996 में देश में पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी। 1998 दिल्ली के दूसरे चुनाव में कांग्रेस ने फतह हासिल की और 2004 आते-आते केंद्र से भाजपा नेतृत्व वाली सरकार की विदाई हो गई। 2013 में दिल्ली विधानसभा में भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरकर सामने आई और नई नवेली आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को पीछे धकेलकर 28 सीटें जीतीं और 2014 में केंद्र से कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार का बिस्तर बंध गया।
तबसे अब तक यानी 2024 तक कांग्रेस तमाम उतार-चढ़ाव से गुजरते हुए केंद्र की सत्ता से महरूम है और अब दिल्ली में अपनी पुरानी जमीन तलाश रही है। अब 2024 के विधानसभा चुनावों में 'मोदी मैजिक बनाम केजरीवाल करिश्मा बनाम शीला दीक्षित' की विरासत का मुकाबला है। पिछले करीब तीस वर्षों से दिल्ली की सत्ता से बाहर रहने के बावजूद भाजपा यहां पहले शीला दीक्षित और बाद में अरविंद केजरीवाल के मुकाबले कोई ऐसा नेता नहीं गढ़ पाई जो पार्टी का चुनावी चेहरा बनकर उसका वनवास खत्म कर सके। महारथी विजय कुमार मल्होत्रा से लेकर ईमानदार और सौम्य सहज डा. हर्षवर्धन के बाद तेज तर्रार आईपीएस किरण बेदी और फिर पूर्वांचली लोकगायक मनोज तिवारी तक सबको आजमा चुकी भाजपा इस बार भी कोई चेहरा न देकर सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मैजिक के सहारे है। वहीं, मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बावजूद आम आदमी पार्टी का सारा दारोमदार अरविंद केजरीवाल के करिश्मे पर टिका है तो चेहरे और संगठन की कमी से जूझ रही कांग्रेस को 15 साल दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित के जमाने में हुए विकास कार्यों की विरासत का ही सहारा है।
इस तिकोने मुकाबले से निकले नतीजों से ही नए साल में देश की अगली राजनीतिक तस्वीर बनेगी। अगर दिल्ली में भाजपा जीतकर अपना तीस साल का वनवास खत्म कर पाती है तो न सिर्फ भाजपा का मनोबल और बढ़ेगा बल्कि विपक्षी 'इंडिया' गठबंधन में आपसी दोषारोपण और तकरार टूटने की हद तक भी जा सकती है, लेकिन अगर आम आदमी पार्टी अपनी सत्ता बरकरार रखती है तो देश खासकर विपक्ष की राजनीति में अरविंद केजरीवाल का कद बढ़ जाएगा और कांग्रेस पर इंडिया गठबंधन के घटक दलों का दबाव खासा बढ़ जाएगा। मुमकिन है कि तब आप, सपा, तृणमूल कांग्रेस, राजद, शिवसेना (यूबीटी), राकांपा (शरद पवार) जैसे दल कांग्रेस पर गठबंधन की अगुआई से पीछे हटने का दबाव और बढ़ा दें। लेकिन अगर कांग्रेस अपनी सीटें और वोट प्रतिशत दहाई में कर लेती है तो न सिर्फ दिल्ली बल्कि सभी राज्यों में क्षेत्रीय दलों को उसकी अनदेखी करना मुश्किल होगा।
भारत के राजनीतिक इतिहास में बीता साल 2024 राजनीतिक उतार-चढ़ाव के लिए हमेशा इसलिए याद किया जाएगा, क्योंकि इस वर्ष हुए लोकसभा चुनावों में जहां देश में सत्ता के एकाधिकार और विपक्ष की दुर्बलता के समीकरण को बदलने का फैसला देश की जनता ने किया। वहीं उसके बाद हुए हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनावों में जनता ने सत्ता पक्षा और विपक्ष दोनों को खुश होने और निराश होने के बराबर मौके भी दिए। लेकिन नया साल 2025 भी एनडीए और 'इंडिया' गठबंधनों की सियासी परीक्षा का साल है और इस साल होने वाले दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनावों के नतीजे भी भविष्य की राजनीति की पटकथा लिखेंगे।
देश के चुनावी सफर में कुछ साल इसलिए याद किए जाते हैं कि उनमें कुछ ऐसा हुआ जिसने देश की राजनीति को दूर तक प्रभावित किया है। 1947 में जब देश आजाद हुआ। 1967 में जब देश में कांग्रेस का किला दरका और उत्तर भारत के कई राज्यों में गैर कांग्रेसी संविद सरकारें बनीं। 1977 में जब देश में कांग्रेस का तीस साल का निर्बाध शासन खत्म हुआ और केंद्र में पहली बार एक गैर कांग्रेसी जनता पार्टी की सरकार बनी। 1984 में जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनावों में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को 415 सीटों वाला अब तक का सबसे जबरदस्त बहुमत मिला। 1989 में जब कांग्रेस के बागी विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने। 1996 में जब पहली बार भारतीय जनता पार्टी को केंद्र में सरकार बनाने का मौका मिला। 2004 जब अप्रत्याशित रूप से भाजपा को हार और कांग्रेस को चौंकाने वाली जीत मिली। 2014 जब पहली बार भाजपा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अकेले पूर्ण बहुमत पाकर केंद्र में सत्तासीन हुई और फिर 2024 जब जनता ने 2004 की तरह चौंकाते हुए भाजपा के 370 और एनडीए के चार सौ पार के नारे की हवा निकाल दी। लेकिन सरकार भाजपा के नेतृत्व में एनडीए की ही बनी और नरेंद्र मोदी लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने वाले जवाहर लाल नेहरू के बाद दूसरे नेता हो गए। 2024 में अगर लोकसभा चुनावों में विपक्ष का हौसला जनता ने बढ़ाया तो उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में हरियाणा महाराष्ट्र में फिर भाजपा को ताकत दे दी और लोकसभा चुनावों में भाजपा को 240 पर रोककर फूल का कुप्पा हो रहे विपक्ष को जम्मू-कश्मीर और झारखंड की जीत से ही संतोष करना पड़ा। कांग्रेस के लिए तो ये दोनों राज्य महज सांत्वना पुरस्कार जैसे ही थे।
अब जबकि दिल्ली विधानसभा चुनावों की घोषणा हो चुकी है और पांच फरवरी को दिल्ली की जनता तय करेगी कि दिल्ली में जिस आम आदमी पार्टी (आप) को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आप-दा कहा है, क्या दिल्ली इस आप-दा से मुक्त होगी या अगले पांच साल के लिए फिर दिल्ली पर आप-दा काबिज रहेगी या फिर कांग्रेस अपनी खोई जमीन पाने की जो कोशिश कर रही है, अगर उसमें वह कुछ हद तक भी कामयाब हो गई तो उसका असर आम आदमी पार्टी के चुनाव नतीजों पर क्या पड़ेगा। इन सवालों के जवाब जब आठ फरवरी को सामने आएंगे तब देश की राजनीति की भावी दिशा तय होगी। दिल्ली के चुनावों में प्रकट रूप से तीनों दल आप, भाजपा और कांग्रेस पूरा जोर अपनी अपनी जीत के लिए लगा रहे हैं। लेकिन तीनों दलों के कुछ गोपनीय एजेंडे भी हैं।
भले ही आप और कांग्रेस 'इंडिया' गठबंधन में एक साथ हों लेकिन आप नहीं चाहती कि दिल्ली में कांग्रेस की कुछ भी सीटें आएं। आप चाहती है कि सरकार उसकी बने और विपक्ष में भाजपा ही रहे जिससे कांग्रेस का पुराना जनाधार जो आप के पास आ गया है वो उसके ही पास बना रहे। अगर कांग्रेस आगे बढ़ी तो आप को अपना जनाधार खोने का खतरा पैदा हो सकता है। जबकि कांग्रेस की रणनीति है कि उसकी सरकार बने न बने लेकिन किसी भी तरह आप की सरकार न बने, भले ही भाजपा की बन जाए, जिसका फायदा कांग्रेस को पंजाब के अगले विधानसभा चुनावों में हो क्योंकि अगर आप दिल्ली में सत्ता से बाहर हुई तो उसका असर पंजाब में भी उसके खिलाफ होगा। साथ ही अन्य राज्यों में भी इसका फायदा कांग्रेस को होगा, जहां आम आदमी पार्टी, कांग्रेस के वोटों में सेंधमारी करके कांग्रेस के लिए मुश्किल पैदा करती है। कांग्रेस यह भी चाहती है कि उसकी सीटें दहाई में आ जाएं और उसका मत प्रतिशत भी 15 फीसदी से ज्यादा हो जाए जिसका सीधा नुकसान आप को होगा और मुमकिन है तब विधानसभा त्रिशंकु हो जाए और फिर सरकार बनाने के लिए आप को कांग्रेस के समर्थन पर निर्भर होना पड़े।
उधर भाजपा चाहती है कि यह चुनाव 1993 और 2013 की तरह त्रिकोणात्मक हो और कांग्रेस कुछ सीटें जीते और अपना मत प्रतिशत भी दस फीसदी के आस पास या उससे ज्यादा लाकर आप के वोटों में सेंधमारी करके भाजपा की जीत का रास्ता आसान कर दे। क्योंकि जब भी दिल्ली में द्विध्रुवीय चुनाव हुए हैं, भाजपा हारी है। लेकिन जब भी त्रिकोणात्मक चुनाव हुए भाजपा जीती या सबसे बड़े दल के रूप में सामने आई। 1993 में जब दिल्ली विधानसभा के पहले चुनाव हुए तो कांग्रेस भाजपा के अलावा जनता दल भी एक ध्रुव बना और उसने 12.65 फीसदी वोटों के साथ चार सीटें भी जीती थीं, जिसका नतीजा हुआ कि भाजपा ने 49 सीटें जीतकर सरकार बनाई और कांग्रेस महज 14 सीटों पर सिमट गई। लेकिन 1998, 2003 और 2008 में लगातार तीनों चुनावों में कांग्रेस भाजपा का सीधा मुकाबला हुआ और तीनों चुनाव कांग्रेस जीती। लेकिन जब 2013 में आम आदमी पार्टी मैदान में आई और चुनाव त्रिकोणात्मक हआ तो भाजपा 32 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी और कांग्रेस महज आठ सीटों पर सिमट गई जबकि नई नवेली आप ने 28 सीटें जीतकर सबको चौंका दिया।
उसके बाद फिर 2015 और 2020 के चुनाव आप बनाम भाजपा के सीधे मुकाबले के हुए और भाजपा एक बार सिर्फ तीन और दूसरी बार सिर्फ आठ सीटें ही जीत सकी, जबकि आप ने पहले 67 और फिर 62 सीटों का तूफानी बहुमत हासिल किया। इसलिए भाजपा की कोशिश है कि कांग्रेस कुछ मजबूत हो और चुनाव तिकोने मुकाबले का हो जाए तो उसकी पूर्ण बहुमत की सरकार बने या फिर मामूली बहुमत से आम आदमी पार्टी सरकार बना भी ले लेकिन भाजपा भी कम से कम 20 से 25 सीटें जीतकर आप सरकार पर सियासी नकेल डाल सके। साथ ही इससे पूरे देश में कांग्रेस को कमजोर करने के लिए आम आदमी पार्टी जिंदा बनी रहेगी और जहां-जहां भाजपा कांग्रेस का सीधा मुकाबला है, वहां आप कांग्रेस के वोटों में सेंधमारी करके भाजपा की राह आसान करती रहेगी और विपक्षी इंडिया गठबंधन में कांग्रेस को कमजोर करे जिससे लोकसभा चुनावों में भाजपा को फायदा होता रहेगा। आकार और आबादी में भले ही दिल्ली हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और जम्मू कश्मीर से छोटी हो लेकिन दिल्ली का सियासी तापमान देश के किसी भी बड़े राज्य से कम नहीं है। कहा जा सकता है कि छोटे चुनावों के बड़े नतीजे।