अहंकार के नाश के लिए अर्हम् की साधना अनिवार्य : जैनाचार्य महाराज

उदयपुर । मालदास स्ट्रीट स्थित आराधना भवन में जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेन सूरीश्वर महाराज की निश्रा में बडे हर्षोल्लास के साथ 45 आगम तप की महामंगलकारी आराधना चल रही है। आगम तप की आराधना में एकासना की सुंदर व्यवस्था संघ के द्वारा की गई है। बड़ी संख्या में आराधक प्रवचन एवं तपश्चर्या में जुड़े है।
संघ के कोषाध्यक्ष राजेश जावरिया ने बताया कि शुक्रवार को मालदास स्ट्रीट के नूतन आराधना भवन में जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेनसूरीश्वर ने प्रवचन देते हुए कहा कि अहंकार आत्मा का रोग है। शारीरिक रोगों से स्वास्थ्य हानि होती हैं, जब कि अहंकार से आत्मगुणों की हानि होती है। अहंकार के नाश के लिए अर्हम् की साधना अनिवार्य है। सर्वगुणसंपन्न अरिहंत आदि पंच परमेष्ठि-भगवन्तों को नमस्कार करने से अहंकार दोष का क्षय होता है और नम्रता आदि गुणों की प्राप्ति होती है। जो गुणवान व्यक्ति को नमस्कार करता है, उसके कर्म के बंधन टूटे बिना नहीं रहते हैं। श्री दशवैकालिक-सूत्र में चार प्रकार की विनय समाधि बतलाई गई हैं। गुरु की आज्ञा को जिज्ञासु-बनकर सुनने की इच्छा करें। गुरु की आज्ञा को ज्ञानपूर्वक ग्रहण करें। गुरु की आज्ञानुसार कार्य संपादन करने के बाद अपनी आत्म प्रशंसा न करें । जिस प्रकार मूल (जड़) में से स्कंध पैदा होता है, स्कंध में से शाखा, शाखा में से छोटी डाली और उसमें से पान, फूल, फल आदि पैदा होते हैं, उसी प्रकार धर्मरूपी कल्पवृक्ष का मूल विनय है और सम्यग्ज्ञान प्राप्ति, सुकुल में जन्म, देवलोक गमन आदि स्कंध तुल्य हैं तथा परमपद मोक्ष की प्राप्ति उसका फल है। हितकारी वचन कहने पर भी गुस्सा करने वाला, जाति आदि का अभिमान करने वाला, अप्रिय बोलने वाला, कपटी, शठ, संयम योग में शिथिलता आदि दोषों से युक्त जो शिष्य, गुरु का विनय नहीं करता है, वह नदी के प्रवाह में बहने वाले काष्ठ की भाँति संसार सागर के प्रवाह में बह जाता है। जो शिष्य आचार्य उपाध्याय आदि की सेवा शुश्रूषा करते हैं उनका विनय करते हैं, वे जल के सिंचन से बढऩेवाले वृक्ष की भाँति ग्रहण व आसेवन शिक्षा से वृद्धि प्राप्त करते हैं। अविनीत शिष्य अपनी ज्ञानादि संपत्ति का नाश करता है और विनीत शिष्य अपनी ज्ञानादि संपत्ति में अभिवृद्धि करता है। जो शिष्य निरन्तर गुरु की आज्ञा के अधीन रहते हैं, गीतार्थ बनकर गुरु का विनय करते हैं, वे शिष्य शीघ्र ही समस्त कर्मबंधनों से मुक्त होकर शाश्वत अजरामर पद प्राप्त कर लेते हैं। जो शिष्य गुरु से ज्ञान प्राप्त करेगा, उस शिष्य में अपने उपकारी के प्रति कृतज्ञ भाव होने से नम्रता आएगी और गुरु के बिना जो ज्ञान प्राप्त होगा, उसमें कृतज्ञता का अभाव होने से नम्रता नहीं आएगी । गुरु से ज्ञान प्राप्त करने पर उनकी सेवा, वैयावच्च, भक्ति आदि का लाभ शिष्य को प्राप्त होता है। गुरु के बिना पढऩे पर यह लाभ नहीं मिल पाता है। गुरु से विनयपूर्वक जो ज्ञान प्राप्त होता है, गुरु की अनुग्रह कृपा प्राप्त होती है, जिससे आत्म विकास-तीव्र गति से होने लगता है। केवल पदार्थ बोध के लिए ज्ञान-प्राप्ति नहीं करने की हैं, बल्कि ज्ञान को प्राप्त कर जीवन में उतारने के लिए ज्ञान पाना है। गुरु के पास विनयपूर्वक ज्ञानार्जन करने पर अपना आचरण भी शुद्ध बनता जाता हैं। इन्हीं कारणों से ज्ञान की प्राप्ति गुरु से ही करने का स्पष्ट विधान है।
इस अवसर पर कोषाध्यक्ष राजेश जावरिया, अध्यक्ष शैलेन्द्र हिरण, भोपालसिंह सिंघवी, गौतम मुर्डिया, अभिषेक हुम्मड, जसवंत सिंह सुराणा आदि मौजूद रहे।