नवरात्रि की आस्था की लहर:: भीलवाड़ा से जोगणिया माता तक पैदल यात्रा में रातभर लंगरों का सैलाब, लाखों भक्तों की मनोकामनाएं हो रही पूरी!

Update: 2025-09-26 07:10 GMT


भीलवाड़ा: शारदीय नवरात्रि का पावन पर्व शुरू होते ही मेवाड़ के प्रमुख शक्तिपीठ जोगणिया माता मंदिर में भक्तों का अपार सैलाब उमड़ पड़ा है। खासकर भीलवाड़ा जिले से हजारों श्रद्धालु पैदल यात्रा कर माता के दरबार पहुंच रहे हैं। इन यात्रियों के लिए रास्ते भर लंगर लगे हुए हैं, जहां रातभर लोगों की आवा-जाही जारी रहती है। ढोल-नगाड़ों की थाप, "जय माता दी" के उद्घोष और भजन-कीर्तनों के बीच यह दृश्य आस्था की अनंत ऊर्जा का प्रतीक बन गया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या यह सिर्फ धार्मिक उत्साह है, या आधुनिक जीवन की भागदौड़ में खोई हुई शांति की तलाश? जोगणिया माता की कृपा से लाखों मनोकामनाएं पूरी हो रही हैं,  



 


नवरात्रि के इन नौ पवित्र दिनों में जोगणिया माता मंदिर, जो भीलवाड़ा और चित्तौड़गढ़ जिले की सीमा पर बसे बेगूं उपखंड में स्थित है, श्रद्धा का सबसे बड़ा केंद्र बन जाता है। यह मंदिर अरावली पर्वतमाला की ऊंची-ऊंची पहाड़ियों से तीन ओर घिरा हुआ है, जहां एक ओर गहरी खाई और दूसरी ओर घना जंगल फैला हुआ है। बरसात के दिनों में मंदिर से नीचे करीब 300 फीट गहरे दर्रे में झरना गिरता है और बरसाती नदी बहती है, जो इस स्थान को प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर बनाता है। मंदिर के गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर दो विशाल सिंह प्रतिमाएं स्थापित हैं, जो मानो माता की रक्षा कर रही हों। समीपवर्ती मंडप में प्राचीन सहस्र शिवलिंग विराजमान है, जो शिव-शक्ति के अद्भुत संगम का आभास कराता है। यहां देवी दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती तीनों रूपों में विराजमान हैं, जिससे यह शक्तिपीठ राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात के लाखों भक्तों की आस्था का केंद्र है।

भीलवाड़ा से जोगणिया माता तक की यह पैदल यात्रा करीब 90 से 118 किलोमीटर लंबी है, जो श्रद्धालुओं के लिए कठिन लेकिन पवित्र चुनौती है। नंगे पैर चलते हुए भक्त पहाड़ी रास्तों, जंगलों और नदियों को पार करते हैं। इस बार नवरात्रि की शुरुआत 22 सितंबर को घटस्थापना से हुई, और पहले ही दिन से यात्रियों का तांता लग गया। भीलवाड़ा के सदर थाने के पास से शुरू होकर यात्रा बासोली, मेनाल जलप्रपात होते हुए बेगूं पहुंचती है। रास्ते में गुर्जर, जैन और अन्य समुदायों की धर्मशालाओं के बीच लंगर लगे हैं, जहां रोटी, दाल, सब्जी और मीठे का प्रसाद रातभर बंटता रहता है। एक यात्रा में शामिल रामलाल शर्मा ने बताया, "रात के 2 बजे भी लंगर चल रहा था। सैकड़ों भक्त भोजन कर आगे बढ़ रहे थे। माता की कृपा से थकान महसूस ही नहीं होती।" लेकिन यह उत्साह के साथ-साथ चुनौतियां भी लाता है – तपती धूप, ऊबड़-खाबड़ रास्ते और कभी-कभी वर्षा। एक दंपति ने तो अपनी 12 साल बाद प्राप्त संतान को ट्रॉली बैग में लिटाकर 118 किमी की यात्रा पूरी की, जो आस्था की मिसाल बन गई।



 


मंदिर की सबसे अनोखी परंपरा है हथकड़ी चढ़ाना। मान्यता है कि यदि कोई व्यक्ति जेल या पुलिस की गिरफ्त से मुक्ति की कामना करता है, तो मनोकामना पूरी होने पर गुप्त रूप से हथकड़ी चढ़ा देता है। मंदिर की दीवारों और पेड़ों पर सैकड़ों हथकड़ियां लटकी हुई हैं, जो माता की न्यायकारी शक्ति का प्रतीक हैं। हाल ही में उदयपुर के संदीप खटीक ने मारपीट के मामले में जेल से रिहा होने पर जेल का लोहे का मॉडल भेंट किया, जिसमें टूटा गेट भी था – मानो जेल तोड़कर भागने की कहानी। भीलवाड़ा के हरीलाल रेगर ने हथकड़ी चढ़ाई और अपराध न करने की शपथ ली।



 

मंदिर में वर्तमान में 3 जेल मॉडल और 30 से अधिक हथकड़ियां हैं। यह परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है, जब घने जंगलों में चोर-डाकू माता से 'परमिशन' मांगते थे। लेकिन क्या यह परंपरा अपराध को बढ़ावा देती है? विशेषज्ञ कहते हैं, नहीं – बल्कि यह सुधार का माध्यम है, जहां भक्त संकल्प लेते हैं।

जोगणिया माता मंदिर का इतिहास 8वीं-9वीं शताब्दी तक जाता है। मंदिर ट्रस्ट के अध्यक्ष सत्यनारायण जोशी के अनुसार, शुरू में यह अन्नपूर्णा देवी का मंदिर था। एक किंवदंती है कि हाड़ा शासक बंबावदा के कठिन समय में देवी ने जोगिन का रूप धारण किया और फिर सुंदर स्त्री स्वरूप में प्रकट हुईं, जिससे नाम 'जोगणिया' पड़ा। हाड़ा चौहान शासकों ने इसका निर्माण करवाया और कुलदेवी बनाया। लोककथा में राव देवा ने विवाहोत्सव पर माता को आमंत्रित किया, जहां उनकी लीला से सभी मुग्ध हो गए। मंदिर परिसर में 64 जोगणिया देवियों की प्रतिमाएं स्थापित हैं, जो परिक्रमा में हैं। साल भर भक्त आते हैं, लेकिन नवरात्रि में सैलाब उमड़ता है।

प्राचीन काल में अज्ञानता के कारण मन्नत पूरी होने पर पशु बलि चढ़ाई जाती थी, यहां तक कि जीभ काटकर चढ़ाने की क्रूर प्रथा थी। 1896 में बेगूं के रावजी ने जीभ काटने पर रोक लगाई। फिर 1974 में जैन साध्वी यश कंवर जी मारासा, संस्थान अध्यक्ष भंवरलाल जोशी और रामचंद्र शर्मा जैसे सुधारकों ने गांव-गांव जागरण चलाया। उन्होंने समझाया कि पशु बलि से माता प्रसन्न नहीं होती, बल्कि रक्षा से होती है। परिणामस्वरूप पशु बलि हमेशा के लिए बंद हो गई। जोशी जी के पिता और पूर्व विधायक भंवरलाल जोशी ने मंदिर को आधुनिक रूप दिया। राजकुमार माली स्मरण करते हैं, "गर्भगृह की नींव रखते समय जोशी जी ने मुझे और प्रह्लाद तेली को सौभाग्य दिया। वह मिलनसार हैं, ऐसे अवसर किस्मत वालों को मिलते हैं।" 


 



  नवरात्रि में एक श्रद्धालु ने कारोबार की मन्नत पूरी होने पर 52 फीट ऊंचा लोहे का त्रिशूल भेंट किया, जिस पर नौ धातुओं की परत चढ़ी है। । नवरात्रि में देवी भागवत कथा, अखंड रामायण पाठ, वेद पाठ और रासलीला हो रही हैं।  

नवरात्रि के इन दिनों में मंदिर "जय माता दी" से गूंज रहा है। दीपों की ज्योति और भक्ति रस हर हृदय को भर देता है।  

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