भीलवाड़ा |काव्य गोष्ठी मंच के त्रि - दिवसीय साहित्य विचार गोष्ठी में ख्यातनाम शायर मिर्ज़ा ग़ालिब के जीवन व उनके साहित्य पर चर्चा करते हुए 27 दिसम्बर 1797 को जन्मे दुनिया के मशहुर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की जयंती का आयोजन गोपाल कृष्ण वाटिका में किया, जिसमें मुख्य अतिथि - शेख अब्दुल हमीद , विशिष्ठ अतिथि एडवोकेट एवं विचारक ललित साहु एवं अफ़जल खां अफ़जल थे, व अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार प्रमोद सनाढ्य की, ललित साहु ने अपने विचार रखते हुए कहा मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू फारसी हिंदी भाषा का प्रयोग कर के अपनी शायरियों का लेखन करते थे, वो प्रेम विरह दर्शन शास्त्र रहस्यवाद के शायर थे, इनकी शायरी आज के युग में भी अपना प्रभाव जनमानस पर छोड़ रही है, दुरदर्शन पर मिर्ज़ा ग़ालिब की जीवनी पर बना धारावाहिक ने मिर्ज़ा ग़ालिब को आम आदमी व घर घर तक पहुंचाया, मिर्ज़ा का जीवन मुफलिसी से भरा होकर भी अपनी फक्कड़ मिज़ाजी पर तंज करता हुआ, शायरना अंदाज लिये एक ऐसे शख्स का जीवन था जो एक फकीरना शायर को सदियो तक अमर बना गया । अफ़जल खां ने मिर्ज़ा के शौक के बारे में बताते हुए कहा कि उन्हें आम खाने का शौक इतना था कि अपने अन्तिम समय में बीमारी की अवस्था में भी वो आम की टोकरिया मंगा कर खाते थे ,,, मिर्ज़ा को शराब का शौक ले डूबा,,, घर में खाने ना होता तो भी वो पहले शराब खरीद कर लाते चाहे खाने का हो ना हो,, और मिर्ज़ा का मशहुर शेर सुनाया,, कहां मयखाने का दरवाज़ा 'गालिब' और कहाँ वाइज़ / पर इतना जानते है कल वो जाता था कि हम निकले/ राजकुमार शर्मा ने उनके काव्य संग्रह के बारे बताते हुए उनकी शायरी का संग्रह दीवान - ए - ग़ालिब नाम दस भागों में प्रकाशित हुआ इस संग्रह का शेर रगो में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल /जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है, सनाया,सूर्य प्रकाश दीक्षित ने उनकी एक ग़जल,, आह को चाहिये इक उम्र असर होने तक / कौन जिता है तेरी जुल्फ़ के सर होने तक / हमने मानाकि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन / खाक हो जाएंगे हमतुमको ख़बर होने तक पेश की,,,शेख अब्दुल हमीद ने,, बे खुदी बे बी सबक नहीं ग़ालिब / कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है / मेहरबान हो के बुला लो मुझको चाहे जिस वक्त / मैं गया वक्त नहीं हूं कि फिर आ भी ना सकूं / पेश की,राहुल दीक्षित ने ,, उनकी ग़ज़ल,, हजारों ख्वाहिश ऐसी है कि हर ख्वाहिश कम निकले / बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले / पेश की, शेख हनीफ़ रिज्वी ने,, हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन /दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है,पेश की ,, प्रमोद सनाढ्य ने उनकी मशहुर ग़ज़ल हर एक बात पर रहते हो तुम की तू क्या है /तुम ही क हो के ये अंदाज ए गुफ्तगू क्या है,, पेश की चन्द्रेशखर नारलाई ने उनकी एक गज़ल ,, वह आए हमारे घर में खुद की कुदरत है / कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं ,,, पेश की अंत में सभी का आभार मंच के राजकुमार शर्मा ने व्यक्त किया ।