जेब काली, बदले जमाने में मोबाइल.....
शमीम शर्मा
कहावत है कि स्त्री की गोद और पुरुष की जेब अगर खाली रह जाये तो दुनिया जीना हराम कर देती है। आदमी की जेब तब खाली रहेगी जब आदमी निठल्लेपन का प्रेमी होगा, वरना मजदूर भी सांझ को जेब में पांच सौ का नोट लेकर ही जाता है। वह भी वक्त था जब जेब सिर्फ आदमियों की पोशाक में ही हुआ करती। पैंट-पायजामे से लेकर कमीज पर जेब टंगी रहती थी। पहली तारीख का सब इंतज़ार किया करते। सरकारी महकमों में भी वेतन नकद मिला करता और जेब में रखकर लाया करते। कुल मिलाकर तनख्वाह इतनी ही हुआ करती कि एक ही जेब में समा जाती थी। सरकारी मुलाज़िम को आज की तनख्वाह अगर नकद मिलने लगे तो छोटा-मोटा थैला लेकर जाना पड़ेगा। दुकानदार भी दिनभर की कमाई को जेबों में भर-भर लाया करते।
अब तो जेबों के खाते ही बंद हो चुके हैं। आजकल वेतन जेब में नहीं आता बल्कि जेब भी मोबाइल के सिम में ही फिट हो चुकी है। कई-कई खाते इसके भीतर समा गये हैं और खातों में वेतन जमा होता है। सारी कमाई मोबाइल में भरी रहती है। पर शुक्र है काली कमाई इसमें नहीं घुस सकती। बीस रुपये के गोलगप्पे या तीस रुपये की श्ाकरकंदी की खरीदारी भी मोबाइल टू मोबाइल है। अब हालत यह है कि आरती की थाली में चढ़ाने के लिये पांच या दस रुपये का सिक्का भी जेब में नहीं मिलता। वे भी दिन थे जब पंजी-दस्सी से लेकर चवन्नी-अठन्नी व एक रुपये के सिक्के से जेब खनकती रहती थी। और सिक्कों भरी इस जेब का मालिक भी स्वयं को धन्ना सेठ से कम नहीं समझता था। आजकल मंदिर में पुजारियों को भी लिखना पड़ा है- पेटीएम या गूगल पे करें।
बात जेबों की हो तो एक सच्चाई यह भी है कि जेब भरना औरतों का काम था ही नहीं। उन्हें घर के कामधंधे से ही कभी फुर्सत नहीं मिली। यह और बात है कि अब उन्होंने बाकी सारे काम छोड़कर पढ़-लिखकर जेब भरनी सीख ली है। चाैके-चूल्हे के धंधे को छोड़कर उन्होंने सैकड़ों धंधे अपना लिये हैं। परिणामस्वरूप खाते भरे रहते हैं, उसके कंधे पर लटका पर्स भले ही ठन-ठन गोपाल हो।
बात जेब की हो तो एक शे’र ज़रूर याद आता है :-
ज़िंदगी के दिन मानो निकल गये ऐसे
फटी जेब से जैसे निकल गये पैसे।
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एक बर की बात है अक सुरजा मास्टर टाबरां ताहिं बोल्या- भोजन प्राप्ति के तीन साधण बताओ। नत्थू नैं सबतैं पहल्यां हाथ ठाया अर बोल्या- जी पेड़-पौधे, जमेटो अर स्वैगी। इसके बाद तो मास्टर जी नैं उसकी जिम्मनवार सी कर दी।