महंगी पॉलिटिक्स: मुफ्त की रेवड़ी क्या बन रही है मुसीबत!
देश भर की सरकारों ने वोटरों को लुभाने के लिए इतने फ्री वायदे कर डाले कि लगता है कि वायदे भी फ्री हो गए हैं. राजस्थान ,मध्य प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना, महाराष्ट्र और दिल्ली आदि राज्यों ने ढेरों वायदे किए हैं. पर जब पैसा देने की बारी आई तो गाना गाया गया कि यह सिर्फ गरीब महिलाओं के लिए है. गरीबी की सीमा रेखा क्या है, यह बताने में सब फेल. नतीजा घोषणाएं तो हैं मगर अमल में नहीं आ रहीं. एक तरह से ये घोषणाएं बस चुनावी घोषणाएं बन कर रह गईं.फ्री की सुविधा उठाने वाला वर्ग काहिल होता जा रहा है. आज पूरे देश में मजदूरों का अकाल है,
फ्री दिया तो कुछ लिया भी
लेकिन तब भी प्रदेश सरकारें यह नहीं तय कर सकीं कि ये योजनाएं प्रदेश की सभी लड़कियों के लिए हैं या एक निश्चित आय वर्ग परिवार की कन्याओं के लिए ही. हर एक को मुफ्त की चीज अच्छी लगती है. मसलन एक ही विद्यालय की एक बच्ची को साइकिल या लैपटॉप मिले और एक को नहीं तो दूसरी को दुःख तो होगा ही. इससे एक ही विद्यालय की दो बेटियों में भेदभाव विकसित होता है. एक स्कूल में पढ़ने वाली दो लड़कियों के परिवार की आय में 19-20 का ही फर्क होगा. ऐसे में एक को लैपटॉप और दूसरी को अंगूठा, कहां का न्याय है. दरअसल कोई भी सरकार हर किसी महिला या वृद्ध को फ्री में कुछ भी दे पाने की स्थिति में नहीं है. अगर कहीं कुछ दिया भी गया तो उसकी भरपायी किसी और तरीके से की गई.
विकास के काम मंद पड़े
मसलन जिन सरकारों ने बसों में महिला यात्रियों का टिकट फ्री किया तो उन्होंने बसों और मेट्रो का किराया बढ़ा दिया. इस तरह उसी परिवार को इस हाथ दिया और उस हाथ ले लिया जैसी स्थिति हो गई. यही नहीं बसों के फेरे घटा दिए गए. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल सरकार ने महिलाओं को बस यात्रा मुफ्त कर दी थी. पर यह भी हकीकत है कि बसों के फेरे कम हुए. विकास के अन्य कामों में ढील आई. दिल्ली की सड़कों की मरम्मत का काम पिछले 15 वर्षों से नहीं हुआ. राष्ट्र मंडल खेलों के समय 2010 में शीला दीक्षित सरकार ने दिल्ली की सड़कों को नया कर दिया था. यहां तक कि गली-मोहल्लों की सड़कें भी चकाचक हो गई थीं. इसके बाद केजरीवाल सरकार को कुछ नहीं करना पड़ा. अलबत्ता उन्होंने प्रदेश का खजाना खाली कर दिया.
वायदे भी फ्री हो गए
देश भर की सरकारों ने वोटरों को लुभाने के लिए इतने फ्री वायदे कर डाले कि लगता है कि वायदे भी फ्री हो गए हैं. हर राज्य में महिलाओं के खाते में फ्री की पेंशन, बस में यात्रा फ्री, कन्या के जन्म पर डिलीवरी का खर्च फ्री और उसके खाते में फ्री में पैसा. लेकिन है यह सभी जुबानी जमा-खर्च ही. क्योंकि फ्री की संपदा पाने के लिए इतने किंतु-परंतु हैं कि यह पैसा जरूरतमंद तक पहुंच नहीं पाता और खजाना खाली हो जाता है. मध्य प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना, महाराष्ट्र और दिल्ली आदि राज्यों ने ढेरों वायदे किए हैं. पर जब पैसा देने की बारी आई तो गाना गाया गया कि यह सिर्फ गरीब महिलाओं के लिए है. गरीबी की सीमा रेखा क्या है, यह बताने में सब फेल. नतीजा घोषणाएं तो हैं मगर अमल में नहीं आ रहीं. एक तरह से ये घोषणाएं बस चुनावी घोषणाएं बन कर रह गईं.
चुनावी वायदे गले की फांस बने
आज हालत यह है कि कर्नाटक सरकार न तो महिलाओं के खाते में पैसे डाल पा रही न बस यात्रा को उनके लिए फ्री कर पा रही. कुछ यही हाल तेलंगाना सरकार का है. कर्नाटक में तो उप मुख्यमंत्री डीके शिव कुमार ने कह दिया है कि सरकार अपने वायदों पर पुनर्विचार कर रही है कि पैसे किस आय वर्ग की महिलाओं को दिए जाएं. इसी तरह फ्री बस यात्रा भी कमजोर तबके की महिलाओं तक सीमित की जाए. वहां टिकट की दरें बढ़ा दी गई हैं. पता चला कि उसी बस में पत्नी तो फ्री में सफर कर रही और उसके पति को डबल किराया देना पड़ रहा है. तब फायदा क्या हुआ! ये कैसी लोक हितकारी सरकारें हैं? तेलंगाना सरकार भी इसी मुद्दे पर फंसी हुई है. मध्य प्रदेश की लाड़ली बहनें अब मोहन यादव के लिए सिरदर्द बन गई हैं. एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र में घोषणाएं तो कर गए किंतु फडणवीस उन्हें पूरा कर पाने में विफल साबित हो रहे.
फ्री के चलते मजदूरों का अकाल
फ्री की सुविधा उठाने वाला वर्ग काहिल होता जा रहा है. आज पूरे देश में मजदूरों का अकाल है, क्योंकि गांवों में फ्री राशन पाने वाला वर्ग मेहनत-मजदूरी कर पेट भरने की आवश्यकता से परे है. छोटे और मझोले उद्योग दम तोड़ रहे हैं. इस तरह स्थानीय स्तर के उद्योगों को खत्म कर मैन्युफैक्चरिंग का हम नाश कर डालेंगे. आज अमेरिका (USA), कनाडा और योरोप के देशों में कपड़े, जूते तथा अन्य छोटी-मोटी चीजों की आपूर्ति बांग्लादेश, वियतनाम, थाईलैंड और चीन से होती है. पहले भारत भी इस रेस में था. पर जब से फ्री राशन और खाते में फ्री का पैसा जाना शुरू हुआ, भारत इस दौड़ से बाहर हो गया. बड़े उद्योग अब लग नहीं रहे तथा बाहर के उद्योगपति भी भारत में आ कर उद्योग लगाना नहीं चाहते, क्योंकि उन्हें लगता है भारत का मजदूर कामचोर है और पैसा ज्यादा मांगता है.
मिडिल क्लास भी अब BPL होता जा रहा
आज स्थिति यह है कि मध्य वर्ग और गरीब वर्ग में भेद करना मुश्किल है. एक परिवार में चार सदस्य काम रहे हैं और प्रत्येक सदस्य 25 हजार से कम वेतन पाता है तो भी उस परिवार की कुल आय एक लाख रुपए प्रति मास होती है. दूसरी तरफ इतने ही सदस्यों वाले परिवार में एक ही सदस्य कमाता है और उसकी तनख्वाह 60 हजार है तो फ्री की सुविधा किसे मिलनी चाहिए. स्वास्थ्य के लिए आयुष्मान योजना में घर की आय और परिवार की सदस्य संख्या इस तरह रखी गई है कि गरीब आदमी उसका लाभ ले नहीं पाता. इसलिए फ्री की सुविधा पाने वालों के प्रति जन आक्रोश भी बहुत अधिक है. एक सवाल खड़ा हो रहा है कि कुछ लोगों को फ्री राशन, फ्री यात्रा और फ्री चिकित्सा एवं शिक्षा दे कर क्या हम एक मुफ्ती वर्ग पैदा कर रहे हैं, जो हर चीज मुफ्त पाने की लाइन में है.
DTC अब बोझ बनी है
दिल्ली की सत्ता पाने के लिए अरविंद केजरीवाल ने महिलाओं को फ्री बस यात्रा और खाते में 2100 रुपए डालने के वायदे पर अमल तो किया. किंतु ऑटो वालों से किए वायदे को वे भूल गए. न साल में दो बार उन्हें वर्दी के लिए ढाई-ढाई हजार रुपए मिले न उनकी बेटियों की शादी के लिए पैसे. दिल्ली सरकार के स्कूलों को हाई-टेक बनाने की योजनाएं भी फुस्स हो गईं तथा मोहल्ला क्लिनिक में न डॉक्टर हैं न कम्पाउण्डर न दवाएं. दिल्ली में पहले से चल रहे सामुदायिक स्वास्थ्य औषधालय भी उखड़ गए. इस चुनाव में इसी का नतीजा उन्हें भुगतना पड़ा. दिल्ली के परिवहन बेड़े (DTC) का हाल यह है कि उनकी बसें कबाड़ साबित हो रही हैं. जबकि आजादी के बाद जब DTC बनी तब से यह दिल्ली वालों के लिए लाइफ लाइन रही है. दिल्ली मेट्रो सेवा भी रोज कहीं न कहीं बाधित होती है.
बाधित होती मेट्रो
दिल्ली मेट्रो में हिडन किराया इतना अधिक है कि कोई व्यक्ति अगर एक स्टेशन से आधा किमी दूर अगले स्टेशन पर उतरे तो उसके आठ रुपए कट गए. पानी-बिजली फ्री देने वाली सरकार कुछ भी फ्री देने की स्थिति में नहीं रह गई थी. अब देखना खाली खजाने से भाजपा की रेखा गुप्ता कितने वायदों को पूरा कर पाएंगी. DTC के अफसरों ने रेखा गुप्ता के शपथ ग्रहण के अगले रोज से ही कुछ रूट पर महिलाओं से टिकट लेने का आग्रह किया किंतु विरोध के चलते यह संभव न हो सका. भाजपा ने भी चुनाव के पूर्व महिलाओं को 2500 रुपए प्रति मास देने का वायदा किया. चुनाव के समय सिर्फ गरीब महिलाओं के लिए ही पैसों की बात नहीं की गई थी. अब देखना यह है कि कितनी महिलाओं को इस योजना का लाभ मिलेगा.
कुर्सी के लिए देश-हित का बलिदान न करें
चीन आज दुनिया में सिरमौर इसलिए बनता जा रहा है, क्योंकि उसने अपने यहां मजदूरों को कुशल और मेहनती बनाया. वहां फ्री में कुछ नहीं मिलता. दूसरी तरफ उससे अधिक आबादी वाले भारत में मजदूर नहीं मिलते. उनके अंदर न कुशलता है न मेहनत करने का माद्दा. इसलिए भारत की चीजें विदेशी बाजार में नहीं बिकतीं. एक तरफ तो देश से डंकी रूट से USA, कनाडा और UK एवं आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैंड जाने वालों की फौज और दूसरी तरफ अपने देश में कामचोरी. यह एक तरह की उलटबांसी नहीं तो और क्या है. भारत की हर राजनीतिक पार्टी को सोचना पड़ेगा कि उसे फ्री की चाहत रखने वाले वोटर नहीं, बल्कि देश के प्रति जिम्मेदार वोटर तैयार करने होंगे. कुर्सी आती-जाती रहती है पर देश का हित सर्वोपरि!
शंभूनाथ शुक्ल