जन्म मृत्यु के चक्र से मुक्ति के लिए दशरथ बनने का प्रयास करें – दीदी मंदाकिनी
निंबाहेड़ा राम जन्म भूमि तीर्थ अयोध्या से पधारी दीदी माँ मंदाकिनी ने आमजन से आह्वान किया कि जन्म मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाने के लिए दशरथ बनने का प्रयास करें। दीदी मंदाकिनी 20 वें कल्याण महाकुंभ के चतुर्थ दिवस शनिवार को श्रीराम कथा मंडप में व्यासपीठ से श्रीराम कथा का अमृतपान करा रही थी। उन्होंने मानस के बालकाण्ड की विस्तृत व्याख्या करते हुए कहा कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने बालकाण्ड में ही प्रभु राम से पूर्व राजा दशरथ और दशमुख का विस्तार से वर्णन किया हैं। ये दोनों प्रतिद्वंदि पात्र हैं। उन्होंने कहा कि इन पात्रों से पूर्व गोस्वामी जी ने शंकर पार्वती की कथाओं का वर्णन करते हुए कहा कि जहां सती राम कथा से विमुक्त थी, वहीं पार्वती रामानुरागी थी, इसी कारण पार्वती ने राम कथा का श्रवण कर युगल स्वरूप में शिव पार्वती ने राम को अपना आराध्य स्वीकार किया। उन्होंने दशरथ और दशमुख के संदर्भ में कहा कि दोनों राजाओं के चरित्र में कोई समानता नहीं हैं, जबकि दोनों के नाम में 10 विद्यमान हैं। उन्होंने कहा कि हर एक मनुष्य भी 10 रूप में हैं, क्योंकि मानव शरीर में पांच ज्ञांनेन्द्री व पांच कर्मेन्द्री मौजूद हैं। वहीं इन्द्रियों के साथ प्रभु ने विवेक भी दिया हैं। 10 इन्द्रियों से युक्त शरीर से हम दर्शक बनना चाहते हैं। यह दशमुख हमारे विवेक पर निर्भर करता हैं। जिसने स्वयं को रथ से जोड़ दिया वह दशरथ बनेगा और मुख से जोड़ने पर दशमुख बनेंगे। उन्होंने कहा कि दशरथ पूर्व जन्म में महाराज मनु थे, जिनकी पत्नी शतरूपा थी,जबकि रावण पूर्व जन्म में राजा प्रताप भानु थे। दोनों धार्मिक राजा थे, लेकिन मानव जाति के आदि पुरूष कहलाएं। जिनके राज में प्रजा सुखी थी और उन्होंने चौथे आश्रम में जीवन में पूर्णता का बौध प्राप्त करने के लिए वैराग्य को स्वीकार कर साधना में लीन हो गए। प्रताप भानु राजा कैकई देश के थे, जो मृग आखेट के लिए वन में गए तो कई शिकार के बाद संध्याकाल में कालकेतु राक्षस रूपी सुकर को मारने का प्रयास किया,परंतु वह उनके हाथ नहीं आया और वन में उन्होंने कपट मुनि मिले। जिनसे वे ज्ञान एवं शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाए। कथा के दौरान इन्द्रदेव ने भी हल्की फूव्वारों के साथ सहभागिता निभाते हुए राम कथा का आनंद लिया। उन्होंने कहा कि कथा हमेशा आत्म निरीक्षण शिविर के रूप में होती हैं, जिसमें बैठकर सत्संग के माध्यम से भक्ति को अंगीकार करना चाहिए। उन्होंने बताया कि गोस्वामी जी ने मानस में आध्यात्मिक पक्ष के साथ साथ ऐतिहासिक पक्ष को भी समाहित किया हैं। जिसमें श्रीराम को परमात्मा स्वरूप में दर्शाया हैं,जो त्रिकाल स्वरूप में विद्यमान हैं। उनकी लीलाएं तीनों काल में घटित होती रहती हैं। मानस में प्रत्येक व्यक्ति के लिए मांगलिक उपदेश दिए गए हैं। जिसमें शिव को मूर्तिमान विश्वास का प्रतीक बताया गया हैं। जिनसे यह प्रेरणा मिलती हैं कि जीवन के हर क्षेत्र में विश्वास जरूरी हैं। इसलिए श्रद्धा और विश्वास को आदर्श रूप में स्वीकार करना चाहिए। प्रारंभ में दीदी मंदाकिनी ने वेदपीठ पर विराजित ठाकुर जी के मनभावन दर्शन कर स्वयं को धन्य करते हुए व्यासपीठ पर विराजित मुख्य आचार्य व मुख्य श्रोता के रूप में भी पूजा की। वहीं वेदपीठ के पदाधिकारियों एवं न्यासियों द्वारा व्यासपीठ का पूजन कर दीदी मंदाकिनी का आत्मिक स्वागत एवं अभिनन्दन किया। इस दौरान भजन गायकों द्वारा अवधी भाषा में मैय्या सीता की स्तुति कर वातावरण को राममय बना दिया।