राजस्थान में दोबारा अनपढ़ों पर लगेगी चुनावी पाबंदी? पंचायत और निकाय चुनावों में शैक्षणिक योग्यता लागू करने पर मंथन, सरकार असमंजस में
जयपुर। राजस्थान में एक बार फिर पंचायत और शहरी निकाय चुनावों में शैक्षणिक योग्यता अनिवार्य करने की चर्चा तेज हो गई है। सरकार के उच्च स्तर पर इस प्रस्ताव पर विचार मंथन चल रहा है, मगर फिलहाल कोई ठोस निर्णय नहीं हो पाया है। नतीजा यह है कि पूरे प्रदेश में "वेट एंड वॉच" की स्थिति बनी हुई है।
दरअसल, यह मुद्दा तब उठा जब कई संगठनों और राजनीतिक नेताओं ने सरकार से अनपढ़ उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से रोकने की मांग की। उनका तर्क है कि जब चुने गए प्रतिनिधियों को जनता की नीतियाँ लागू करनी हैं, बजट संभालना है और विकास योजनाओं की निगरानी करनी है, तो कम से कम वे पढ़े-लिखे तो हों।
पूर्व में वसुंधरा सरकार ने लागू किया था नियम, गहलोत सरकार ने हटाया
2015 में तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की सरकार ने एक ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए पंचायतीराज और शहरी निकाय चुनावों में शैक्षणिक योग्यता को अनिवार्य कर दिया था। उस समय सरपंच, पार्षद, प्रधान और जिला प्रमुख बनने के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय की गई थी — महिलाओं और अनुसूचित वर्गों के लिए थोड़ी छूट दी गई थी।
लेकिन साल 2019 में गहलोत सरकार ने इस प्रावधान को हटाते हुए कहा कि शिक्षा का अधिकार हर किसी को समान रूप से चुनाव लड़ने से नहीं रोक सकता। इसके बाद फिर से अनपढ़ उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतरने की अनुमति मिल गई।
सरकार के पास पहुंचीं कई मांगें, बीजेपी नेताओं ने भी लिखा पत्र
बीते कुछ महीनों में सरकार के पास कई संगठनों और भाजपा नेताओं के पत्र पहुंचे हैं। इनमें स्पष्ट मांग की गई है कि पंचायत और निकायों में शिक्षा को चुनावी योग्यता के रूप में फिर से जोड़ा जाए।
कुछ संगठनों ने यह भी तर्क दिया है कि अनपढ़ प्रतिनिधियों के कारण विकास योजनाएं अटकती हैं, सरकारी योजनाओं की समझ में कमी आती है, और प्रशासनिक तालमेल बिगड़ता है।
यूडीएच मंत्री झाबर सिंह खर्रा बोले— "दोनों पक्षों पर विचार जारी"
यूडीएच मंत्री झाबर सिंह खर्रा ने कहा,
> “कुछ समूहों ने पंचायतीराज और निकाय चुनावों में शैक्षणिक योग्यता लागू करने की मांग की है। सरकार में इस पर गंभीरता से मंथन चल रहा है। मांग-पत्र आने के बाद कागजी प्रक्रिया शुरू होती है, और जब कोई ठोस निर्णय होगा तो कानून में संशोधन भी किया जाएगा। पहले भी संशोधन हुए हैं, अब भी संभव हैं।”
अंदरूनी मतभेद, इसलिए अटकी है फाइल
सूत्रों के अनुसार, सरकार के भीतर इस मुद्दे पर मतभेद हैं। एक वर्ग का मानना है कि शैक्षणिक योग्यता से स्थानीय स्तर पर नेतृत्व सीमित हो जाएगा और गरीब तबके के लोग राजनीति से कट जाएंगे। जबकि दूसरा वर्ग कहता है कि शिक्षित जनप्रतिनिधि बेहतर प्रशासन और पारदर्शिता लाने में सक्षम होंगे।
अब निगाहें सरकार के अगले कदम पर
फिलहाल सरकार “विचार-मंथन” के चरण में है। अगर निर्णय हुआ तो पंचायतीराज अधिनियम और नगर निकाय अधिनियम में संशोधन कर शिक्षा को फिर से चुनावी शर्त बनाया जा सकता है।
प्रदेशभर के पंचायत प्रतिनिधि, सामाजिक संगठन और राजनैतिक दल अब सरकार के अगले कदम पर निगाहें टिकाए बैठे हैं।
