राजस्थान में किसान भूल गया हल, बैल और देशी बीज, अब बुवाई-निराई की परंपरा भी खत्म
राजस्थान की धरती, जो कभी हल-बैल और देशी बीजों की खुशबू से महकती थी, आज मशीनीकरण और रासायनिक खेती की चपेट में आ गई है। कभी किसान सुबह-सुबह बैलों के साथ खेतों में उतरता था, मिट्टी की नमी और मौसम की चाल को देखकर बुवाई करता था। लेकिन अब यह नज़ारा धीरे-धीरे गायब हो गया है। राज्य के अधिकांश इलाकों में किसान हल, बैल और पारंपरिक खेती के तौर-तरीकों को भूल चुके हैं।
पहले गांवों में हर किसान के पास जोड़ी बैल होती थी, जिनसे खेत की जुताई होती थी। बैलों से जोते गए खेत की मिट्टी नरम, जीवंत और उपजाऊ रहती थी। गोबर की खाद से फसल मजबूत होती थी और मिट्टी की सेहत भी बनी रहती थी। लेकिन अब किसान ट्रैक्टर और रासायनिक खादों पर निर्भर हो गया है। रासायनिक उर्वरकों से मिट्टी तो तुरंत नरम दिखती है, पर धीरे-धीरे उसकी प्राकृतिक ताकत खत्म हो रही है।
राजस्थान के किसान अब देशी बीजों की जगह हाइब्रिड बीजों का इस्तेमाल कर रहे हैं। ये बीज शुरू में ज्यादा उपज देते हैं, पर हर साल नए बीज खरीदने की मजबूरी किसान की जेब पर भारी पड़ रही है। वहीं, देशी बीज न केवल सस्ते थे बल्कि सूखा और रोग प्रतिरोधक क्षमता में भी बेहतर साबित होते थे। कभी बाड़मेर, नागौर, चित्तौड़गढ़ और कोटा जैसे इलाकों में स्थानीय बीजों से उगाई गई फसलें पूरे साल परिवार का पेट भरती थीं।
अब तो बुवाई और निराई जैसी पारंपरिक प्रक्रियाएं भी मशीनों के हवाले हो गई हैं। पहले गांव की महिलाएं और बुजुर्ग मिलकर खेतों में निराई करते थे, जिससे एक सामाजिक मेलजोल और सहयोग की भावना भी बनी रहती थी। लेकिन अब किसान खरपतवार खत्म करने के लिए रासायनिक स्प्रे का सहारा ले रहे हैं, जिससे मिट्टी की सेहत और वातावरण दोनों पर असर पड़ रहा है।
राजस्थान के शुष्क इलाकों में जहां पहले खेतों की जुताई गोबर की खाद और देसी तरीकों से होती थी, अब वहां रासायनिक खादों और पानी के अत्यधिक दोहन ने जमीन को बंजर बनाना शुरू कर दिया है। कई जिलों में मिट्टी की नमी खत्म होती जा रही है और भूमिगत जल स्तर भी गिर रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार, रासायनिक उर्वरकों के लगातार उपयोग से मिट्टी के पोषक तत्व नष्ट हो रहे हैं और जैविक जीवाणु मर रहे हैं।
कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि राजस्थान की पारंपरिक खेती प्रकृति के साथ तालमेल का उदाहरण थी। किसान मिट्टी, पानी और मौसम के अनुसार खेती करता था। लेकिन अब बाजार की मांग और अधिक उत्पादन की होड़ में किसान प्रकृति से दूरी बना चुका है। इसका नतीजा यह हुआ है कि खेती महंगी और अस्थिर होती जा रही है।
आज जरूरत इस बात की है कि राजस्थान के किसान फिर से अपनी पुरानी परंपराओं की ओर लौटें। हल-बैल की जुताई, गोबर की खाद और देशी बीजों का प्रयोग मिट्टी को दोबारा जीवंत बना सकता है। जैविक खेती को अपनाने से ना केवल मिट्टी स्वस्थ रहेगी बल्कि फसलों की गुणवत्ता भी बढ़ेगी और किसान का खर्च घटेगा।
सरकार और कृषि विभागों को भी पारंपरिक खेती को प्रोत्साहन देने की दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे। गांवों में देशी बीज बैंक, जैविक खाद उत्पादन केंद्र और मिट्टी स्वास्थ्य कार्ड जैसी योजनाओं को और सशक्त बनाना होगा।
किसान जब फिर से मिट्टी की खुशबू को पहचान लेगा, हल और बैल की ताकत को अपनाएगा और देशी बीजों को सहेजेगा, तभी राजस्थान की धरती दोबारा उपजाऊ और आत्मनिर्भर बन सकेगी। खेती सिर्फ उत्पादन नहीं है, यह राजस्थान की संस्कृति, मेहनत और मिट्टी से जुड़ाव की पहचान है।
