धर्म के स्थान पर धर्म को रखो, तभी होगा आत्मा का विकास- मुनि युगप्रभ

निम्बाहेड़ा।
स्थानीय शांति नगर स्थित, नवकार भवन में चल रही चातुर्मास प्रवचन श्रृंखला के दौरान मंगलवार को धर्मसभा को संबोधित करते हुए मुनि श्री युगप्रभ जी म.सा. ने कहा कि जीवन को तमाशा नहीं, तीर्थ बनाना चाहिए, आज अधिकांश मानव अपने जीवन को तमाशा बनाने में लगे हुए हैं, जबकि जब तक जीवन तीर्थ नहीं बनेगा, आत्मा का विकास असंभव है।
मुनि श्री ने स्पष्ट रूप से कहा कि आत्मा के विकास के लिए हमें अपने जीवन की प्राथमिकताओं को बदलना होगा। धन के स्थान पर धर्म को, संग्रह के स्थान पर दान को, और संक्लेश (कष्टकारी भाव) के स्थान पर उपशम भाव (शांति और क्षमा का भाव) को रखना होगा। जिस दिन मानव धन की अपेक्षा धर्म को महत्व देने लगेगा, उसी दिन उसका जीवन सफलता की ओर अग्रसर हो जाएगा।
उन्होंने एक रोचक उदाहरण देते हुए कहा कि "धन" और "धर्म" दोनों शब्दों में समानता है। दोनों की "राशि" (संख्या) समान है, परंतु दोनों के अंतिम अक्षर अलग हैं और उनका संकेत भी भिन्न है। "धन" का "न" कहता है, यदि तुम मेरे पीछे भागोगे, तो मैं तुम्हें नरक में धकेल दूँगा, वहीं "धर्म" का "म" कहता है, यदि तुम मुझे आत्मा से जोड़ोगे, तो मैं तुम्हें मोक्ष की ओर ले जाऊँगा।
श्रावक के 21 गुणों की चर्चा करते हुए मुनि श्री ने पहले गुण पर विशेष बल दिया। उन्होंने कहा कि श्रावक अक्षुद्रमति होता है अर्थात वह जिसकी बुद्धि कुंठित या दुर्बल नहीं होती। जब तक श्रावक के जीवन में गंभीरता नहीं आती, वह न केवल धर्म के लिए अयोग्य होता है, बल्कि संसार को संभालने के लिए भी अक्षम होता है। गंभीरता से परिपूर्ण व्यक्ति ऐसा आचरण कभी नहीं करता जिससे किसी प्राणी को पीड़ा या कष्ट पहुँचे।
प्रवचन की शुरुआत श्री अभिनव मुनि जी म.सा. ने करते हुए निर्वेद साधना (वैराग्य की साधना) की महिमा के वर्णन से किया। उन्होंने बताया कि निर्वेद साधना करने वाले जीव को विषयों से विरक्ति का भाव, विषय भोगों के प्रति अनासक्ति, आरंभ और परिग्रह (संचय) का त्याग, संसार के प्रति अरुचि एवं मोक्ष की ओर गति जैसे पांच फल प्राप्त होते हैं।
उन्होंने आगे कहा कि मन मजबूत हो तो वासना की हार निश्चित है, लेकिन मन यदि कमजोर हो, तो उपासना भी हार जाती है।"
मुनि श्री ने पुण्य और जीवन की स्थिरता के संबंध पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि "जब तक पुण्य प्रबल होता है, तब तक पत्नी प्रसन्न रहती है और संपत्ति भी साथ देती है, लेकिन यदि पुण्य क्षीण हो जाए तो पत्नी रूठ जाती है, शरीर रोगी हो जाता है और संपत्ति साथ छोड़ देती है।"
धर्मसभा में नगर एवं क्षेत्र के बड़ी संख्या में श्रावक, श्राविकाओं सहित धर्मप्रेमी उपस्थित रहे।