व्यग्रता ने मानव को अशांत और उद्देलित बना दिया है-जिनेन्द्रमुनि
गोगुन्दा। श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ कड़िया स्थित स्थानक भवन में श्रावको के समक्ष जिनेन्द्रमुनि मसा ने कहा कि व्यग्रता एक मानसिक व्याधि है जो मानव को अशांत और उद्देलित बना कर रख देती है।आज यह व्याधि महामारी की तरह पूरे विश्व मे फैलती नजर जा रही है।मानव मस्तिष्क कल्पनाओं का समुद्र है।कल्पनाओं की लहरें उसमे निरन्तर उठती रहती है।यह मानव की योग्यता पर आधारित है कि वह कौनसी कल्पना को साकार करें और कैसे करे?चिंतन करने से व्यक्ति हेय ज्ञेय उपादेय की दिशा मिलती है।श्रेष्ठ और सफल महापुरुषों का अनुभव भी इसमें सहायक बन सकता है।बहुमुखी और तलस्पर्शी चिंतन के द्वारा जो दिशा मिले यदि मानव उस दिशा में ही विवेकपूर्वक सक्रिय हो तो सफलता श्रेष्ठता और आनन्द उसे निश्चित रूप से प्राप्त होंगे किन्तु मानव को आज चिंतन और परामर्श के लिए समय नही है।वह शीघ्रता पूर्वक हड़बड़ी में जो मन मे आया कर लेना चाहता है।
मुनि ने कहा यही वह व्यग्रता है जो उसे असफल अशांत और उद्देलित बना देती है।भगवान महावीर ने प्रत्येक मानव को एक महत्व पूर्ण संदेश दिया कि मानव यदि आत्म शांति चाहता है तो चलना बैठना उठना खाना सोना बोलना सारी क्रियाएं यत्न पूर्वक कर,धैर्य के साथ कर।जैन संत ने कहा आत्म संतोष भंग नही होना चाहिए क्योंकि मानव जीवन का आनन्द आत्म शांति में ही निहित है।महाश्रमण ने कहा आत्म संतोष का अर्थ यह नही कि हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाएं।आत्म संतोष का अर्थ है,हम कठोर से कठोर श्रम और प्रयत्न भी करे किन्तु धैर्य और विवेकपूर्वक करे।वही करे जिसे श्रम पूर्वक ही सही किन्तु पूर्ण करने की अपनी योग्यता हो और अपने पास आवश्यक साधन हो।मुनि ने भरपुरबक कहा मानव तनावों में जीने को इसलिए मजबूर है कि वह कल्पनाओं के साथ बहने लगता है।अपने बलाबल का विचार किये बिना किसी भी तरफ हाथ पैर मारता रहता है तो उसे तो अशांत और उद्देलित होना ही है।