सफेदपोशों का काला खेल: RGHS की सेहत पर डाका, 'दवा' का मास्टरमाइंड सलाखों के पीछे!
÷ आरजीएचएस घोटाला:
÷ फर्जी बिल, जेनरिक दवाएं,
÷ ब्रांडेड बिलिंग का खेल
भीलवाड़ा/झालावाड़: हुजूर, ये सरकारी योजनाएं बनती हैं आम आदमी की सेहत सुधारने के लिए, लेकिन कुछ शातिर खिलाड़ी इन्हें अपनी तिजोरियां भरने का एटीएम बना लेते हैं। राजस्थान सरकार की महत्वाकांक्षी स्वास्थ्य योजना (RGHS) के साथ भी यही हुआ। इस योजना को दीमक की तरह चाट रहे एक बड़े घोटाले का पर्दाफाश हुआ है, और इसका मास्टरमाइंड, सहकारी मेडिकल स्टोर का संचालक कमलेश राठौर, अब पुलिस की गिरफ्त में है। सिर पर ₹25 हजार का इनाम लिए यह महाशय इंदौर के पास छिपे बैठे थे, लेकिन कानून के लंबे हाथ वहां भी पहुंच गए।
घोटाले का 'जेनरिक' फॉर्मूला: पर्ची पर ब्रांडेड, हाथ में सस्ती गोली!
खेल बड़ा सीधा और शातिराना था। झालरापाटन के सरकारी अस्पताल में बैठकर यह गिरोह फर्जीवाड़ा की फैक्ट्री चला रहा था। डॉक्टरों के नाम से फर्जी ओपीडी पर्चियां बनतीं, जिन पर महंगी-महंगी ब्रांडेड दवाओं के नाम लिखे जाते। बिल सीधा सरकार के पास पहुंचता और लाखों का भुगतान हो जाता। लेकिन मरीज के हाथ में क्या आता? सस्ती जेनरिक दवाएं!
सोचिए, सरकार की जेब से पैसा जा रहा था महंगी दवा का और सिस्टम में बैठे ये 'डॉक्टर-दुकानदार' अपना मार्जिन काट रहे थे। जब सीएमएचओ दफ्तर में बिलों का पहाड़ पहुंचा और एक पर्ची पर शक हुआ, तो धागा खिंचना शुरू हुआ। जिन डॉक्टरों के नाम पर्ची पर थे, उन्होंने हाथ खड़े कर दिए और कहा, "जनाब, ये दस्तखत हमारे नहीं!" बस, यहीं से इस गोरखधंधे की कलई खुल गई।
पुलिस का 'ऑपरेशन राठौर': इनाम से लेकर इंदौर तक पीछा!
मामले की गंभीरता को देखते हुए झालावाड़ के एसपी अमित कुमार ने भी ठान लिया कि इस खिलाड़ी को पकड़ना ही है। आरोपी कमलेश राठौर पर ₹25 हजार का इनाम घोषित हुआ। एएसपी चिरंजीलाल मीणा और डीएसपी हर्षराज सिंह खरेड़ा की अगुवाई में एक स्पेशल टीम बनाई गई। मुखबिरों का जाल बिछाया गया, मोबाइल लोकेशन खंगाली गई और आखिरकार टीम ने इंदौर से 40 किलोमीटर दूर, पीथमपुर में छिपे इस शातिर को दबोच ही लिया। शुरुआती पूछताछ में राठौर ने कई और नाम उगले हैं, और अब पुलिस इस गिरोह की बाकी मछलियों को पकड़ने के लिए जाल फेंक रही है।
सवाल जो सिस्टम को चुभेंगे!
यह घोटाला सिर्फ झालावाड़ तक सीमित नहीं है। भीलवाड़ा से लेकर प्रदेश के कई अस्पतालों में यही कानाफूसी है। मरीज शिकायत कर रहे हैं कि उन्हें थमाई तो जेनरिक दवा जाती है, पर बिल ब्रांडेड का बनता है।
चमकते अस्पताल, लुटता खजाना: आखिर क्या वजह है कि सरकारी योजनाओं के सहारे कुछ निजी अस्पतालों का कायाकल्प तो हो रहा है, लेकिन सरकारी खजाना खाली होता जा रहा है?
दुकान पर गिद्ध दृष्टि: क्यों कुछ अस्पताल मालिकों की नजरें डॉक्टर के केबिन से ज्यादा अपने मेडिकल स्टोर के गल्ले पर टिकी रहती हैं?
एक्सपायरी दवाओं का खेल: चर्चा तो यह भी है कि मरीजों से वापस ली गई या बची हुई दवाओं को फिर से खपाने का भी एक बड़ा खेला चल रहा है। हालांकि, यह अभी जांच का विषय है।
यह गिरफ्तारी इस सड़े हुए सिस्टम पर महज एक खरोंच है या एक बड़ी सर्जरी की शुरुआत? अब देखना यह है कि पुलिस की जांच की आंच कहां तक पहुंचती है और इस सफेदपोश खेल के और कितने बड़े खिलाड़ी बेनकाब होते हैं।
