दहेज: एक पुरानी जंजीर, जो बदलते भारत में भी नहीं टूटी: लड़कियाँ पढ़ रहीं, आगे बढ़ रहीं—फिर भी दहेज क्यों नहीं घटता?
देश लगातार आगे बढ़ रहा है—बेटियाँ पढ़ रही हैं, नौकरियाँ कर रही हैं, परिवारों की सोच बदल रही है। लेकिन इसी बदलते दौर में एक बुरा सच अभी भी हटने का नाम नहीं ले रहा: दहेज की प्रथा, जो एक रिश्ते को साथ निभाने का बंधन नहीं बल्कि किसी सौदे में बदल देती है।
दो खबरें, दो चेहरे
बीते दिनों दो खबरें साथ-साथ आईं।
पहली—सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान कहा कि विवाह पवित्र बंधन है, पर दहेज ने इसे व्यापार में बदल दिया है।
दूसरी—एक युवक ने शादी में मिले 31 लाख रुपये यह कहते हुए लौटा दिए कि वह किसी पिता की मेहनत की कमाई नहीं ले सकता।
पहली खबर कटु वास्तविकता बताती है, तो दूसरी इंसानियत और उम्मीद की रोशनी।
फोटो सोशल मीडिया
कानून से बचने की कोशिशें, समाज की कटु सच्चाई
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना कि दहेज को आज भी “उपहार” या “परंपरा” नाम देकर छुपाया जाता है।
कई बार यह “शगुन” कहकर दिया जाता है, लेकिन मंशा वही रहती है—सामाजिक प्रतिष्ठा दिखाना या आर्थिक फायदा लेना।
इसी सुनवाई में अदालत ने एक ऐसे व्यक्ति की जमानत ठुकराई, जिस पर आरोप था कि उसने विवाह के कुछ महीने बाद पत्नी को ज़हर दे दिया। अदालत ने साफ कहा कि दहेज सिर्फ अपराध नहीं, औरतों पर सीधे अत्याचार का माध्यम बन चुका है।
पुरानी यादें, दर्द की परतें
ऐसे मामले नए नहीं हैं। चार दशक पहले दूरदर्शन पर प्रसारित एक कार्यक्रम में बर्न वार्ड में भर्ती एक महिला की कहानी दिखाई गई थी—जिसे उसके पति ने जला दिया था।
इंटरव्यू में पति की मुस्कान—मानो अपराध नहीं, “हक़” अदा किया हो—आज भी सोचकर रोंगटे खड़े कर देती है।
इसी दौर में एक माँ अपनी दहेज-पीड़ित बेटी को खोने के बाद हर प्रदर्शन में खड़ी रहती थी—अपनी आवाज़ से औरतों के दर्द को सामने लाती हुई। बाद में उसने संघर्ष के लिए एक संगठन भी बनाया।
स्टोव कभी नहीं फटता था
कुछ दशक पहले अखबारों में अक्सर खबरें आती थीं—“स्टोव फटने से बहू की मौत”…
लेकिन उस समय भी सब जानते थे कि यह एक बहाना है।
बहू पर मिट्टी का तेल डालकर हत्या कर दी जाती थी, और इसे दुर्घटना बताकर मामला बंद करने की कोशिश होती थी।
दुखद यह है कि यह सिर्फ गरीब घरों में नहीं, संपन्न परिवारों में भी होता था।
कानून सख्त, लेकिन सोच ढीली
दहेज-निरोधक कानून 1961 से मौजूद है।
धारा 498A और IPC की धारा 304B जैसी प्रावधान पीड़ित महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए बनाए गए हैं।
लेकिन कानून अपनी जगह है—समाज अपनी गति से चलता रहा है।
जैसे-जैसे बाजार में उपभोक्ता वस्तुएँ बढ़ीं, वैसे-वैसे दहेज की “लिस्ट” भी बढ़ती गई।
पहले जहाँ साइकिल मांग ली जाती थी, आज कार भी “कम” लगने लगी है।
और फिर तर्क दिया जाता है—“नई गृहस्थी बसानी है… इसलिए सामान दे रहे हैं।”
आँकड़े: समस्या कितनी गहरी है?
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) कहता है:
2017–2023 के दौरान हर वर्ष लगभग 7000 महिलाएँ दहेज-हत्याओं की शिकार हुईं।
2023 में दहेज से जुड़े अपराधों में 14% वृद्धि दर्ज की गई।हजारों केस अदालतों में लंबित पड़े हैं।
विश्व बैंक के एक अध्ययन के अनुसार ग्रामीण भारत में हुई 95% शादियों में दहेज दिया गया।
पाँच वर्षों में 6000 से अधिक हत्याओं में दहेज की सीधी भूमिका मिली।दिखावा, उपभोक्तावाद और तुलना की आग समस्या सिर्फ माँग करने वालों की नहीं है।दहेज देने वाले कई माता-पिता भी तुलना, दिखावे और सामाजिक दबाव में सूची और रकम बढ़ाते चले जाते हैं।
एक महिला ने बताया था कि उसके रिश्तेदार का UPSC में चयन हुआ।अगले ही दिन एक व्यक्ति सूटकेस भरकर नोट लेकर रिश्ता माँगने पहुँच गया—जैसे कोई बोली लगानी हो।
लड़कियाँ पढ़ रहीं, आगे बढ़ रहीं—फिर भी दहेज क्यों नहीं घटता?
आज भारत में लड़कियाँ उच्च शिक्षा, नौकरी और कारोबार में आगे हैं।
लेकिन विडंबना यह है कि दहेज की सोच उतनी ही जमी हुई है।
कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि कन्या भ्रूण हत्या के पीछे भी एक कारण भविष्य का दहेज है, जो माता-पिता के मन में डर भर देता है।
क्या दहेज खत्म होगा?
समाज बदले बिना कानून काफी नहीं।
आवश्यक यह है कि:माता-पिता तुलना और दिखावे से बाहर निकलें युवाओं की नई पीढ़ी साफ बोले—दहेज नहीं चाहिए
शादी को आर्थिक सौदे से हटाकर रिश्ते के सम्मान तक लौटाया जाएउम्मीद वही है, जो उस युवक की कहानी में दिखी जिसने 31 लाख रुपए लौटा दिए—शादी कमाई का जरिया नहीं, दो परिवारों का सम्मानपूर्ण मिलन है।
