उदयपुर, । मालदास स्ट्रीट स्थित आराधना भवन में जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेन सूरीश्वर महाराज की निश्रा में बड़े हर्षोल्लास के साथ चातुर्मासिक आराधना चल रही है।
श्रीसंघ के कोषाध्यक्ष राजेश जावरिया ने बताया कि बुधवार को पर्युषण महापर्व के पहले आराधना भवन में जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेन सूरीश्वर ने प्रवचन देते हुए कहा आज महा मंगलकारी पर्वाधिराज की आराधना का पहला दिन है। आज से आठ-दिवसीय महापर्व का शुभारम्भ हो रहा है। हर जैन के हृदय में आनंद है, उत्साह है, उल्लास है, उमंग है। पर्युषण पर्वों का राजा है। मंत्रों का राजा मंत्राधिराज श्री नमस्कार महामंत्र है । यंत्रों का राजा यंत्राधिराज भी सिद्धचक्र यंत्र है। तीर्थों का राजा तीर्थाधिराज श्री शत्रुंजय महातीर्थ है । उसी तरह पर्वों का राजा पर्वाधिराज श्री पर्युषण महापर्व हैं । हम उसका स्वागत करते है। पर्युषण लोकोत्तर पर्व है। लौकिक पर्वों का उद्देश्य मौज-शौक एवं ऐश-आराम करने का होता है। लोकोत्तर पर्वों का उद्देश्य आत्मा की शुद्धि करने का होता है। दिल में से दुश्मनी की भावना का विसर्जन कर सब जीवों के साथ आत्मीयता का संबंध जोडने हेतु इस महापर्व की आराधना करनी है। इस महापर्व की आराधना द्वारा अनादि काल से आत्मा में बसी हुई जीव के प्रति द्वेष की दुर्वासना को दूर करके जगत के सर्व जीवों के साथ मित्रता का मधुर रिश्ता जोडना है। इस महान पर्व की विशुद्ध और निर्मल आराधना के लिए पूर्वोचार्यों ने पांच महान कर्तव्य बताये है। आठों दिन इन महाकर्तव्यों का अवश्य पालन करना चाहिए । अमारी प्रवर्तन : इस दुनिया के हर जीव को जीना पसंद है। मौत किसी को पसंद नहीं। इसलिए किसी भी जीव को पीड़ा नहीं होनी चाहिए। हिंसा द्वारा व्यक्ति अन्य जीव के द्रव्य प्राणों का नाश करने से आत्मा के अपने स्वयं के भाव प्राणों का नाश होता है। पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन, काया, आयुष्य और श्वासोस्नास ये दस द्रव्य प्राण है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य एवं उपयोग ये आत्मा के भाव प्राण है। जो आत्मा दूसरों के द्रव्य प्राणों का नाश करती है, वह स्वयं के भाव प्राणों के विनाश को ही आमंत्रित करती है। प्रकृति का यह नियम है- जो आप देंगे, वही आपको मिलेगा। कई बार तो अनेक गुना होकर वापस मिलता है। दूसरों को जीवन दोगे तो जीवन मिलेगा। दूसरों को सुख दोंगे तो सुख मिलेगा। दूसरों को अभय दोंगे तो अभय मिलेगा । हेमचन्द्राचार्य जी भगवंत ने योगशास्त्र में ठीक ही कहा है- दीर्घ आयुष्य, श्रेष्ठरुप, आरोग्य, प्रशंसा आदि अहिंसा के ही फल है, इसलिये हिंसा का परित्याग करना चाहिए ।