चलती मौत की सवारियाँ’: जैसलमेर से भीलवाड़ा तक एक जैसी कहानी — बसें बनीं बारूद का ढेर
भीलवाड़ा।
राजस्थान के जैसलमेर में हुए दर्दनाक बस हादसे ने पूरे देश को झकझोर दिया है। इस भीषण दुर्घटना में 27 यात्रियों की मौत ने देशभर की परिवहन व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
हैरानी की बात यह है कि हादसे के बाद भी देशभर में, खासकर राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के रूटों पर, निजी बसों में यात्रियों के साथ माल ढुलाई का खतरनाक खेल खुलेआम जारी है।
सवाल यह है कि आखिर क्यों निजी बसों को “चलती मौत की सवारी” बनने दिया जा रहा है? क्यों सरकारी एजेंसियां आंख मूंदे बैठी हैं? और क्यों हर दिन हजारों लोग ऐसे वाहनों में सफर करने को मजबूर हैं, जो कभी भी हादसे का कारण बन सकते हैं?
भीलवाड़ा से चलने वाली बसों में छिपा खतरा
भीलवाड़ा से दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र और गुजरात के लिए रोजाना दर्जनों निजी बसें रवाना होती हैं। इन बसों का नेशनल परमिट भले ही “पर्यटन परिवहन” के लिए जारी किया गया हो, लेकिन सच्चाई यह है कि इनमें आम सवारियां भरी होती हैं।
यही नहीं, इनकी डिग्गियों और छतों पर अवैध सामान, पटाखे, कपड़ा, केमिकल और कई बार ज्वलनशील पदार्थ तक लादे जाते हैं।
बस मालिकों के लिए यह “डबल मुनाफे” का सौदा है — यात्रियों से किराया और बिना ई-वे बिल वाला माल लादने की मोटी कमाई।
यह न केवल मोटर वाहन अधिनियम 1988 का उल्लंघन है बल्कि जीएसटी चोरी और यात्रियों की सुरक्षा से सीधा खिलवाड़ भी है।
खुलेआम चलता ‘लोडिंग का धंधा’
भीलवाड़ा शहर के लैंडमार्क चौराहा, चित्तौड़ रोड और कपड़ा मिल क्षेत्र में खुलेआम यात्री बसों में माल भरा और उतारा जाता है।
कुछ बस ऑपरेटरों ने तो स्थायी लोडिंग पॉइंट बना रखे हैं।
पहले सीटें यात्रियों से भर दी जाती हैं, फिर डिग्गी, छत और गलियारे तक में माल ठूंस दिया जाता है।
कई बार बस कर्मचारी खुद गलियारे में बैठ जाते हैं ताकि रास्ते में जगह-जगह सामान उतारा जा सके।
इन बसों का वजन भार क्षमता से कई गुना ज्यादा हो जाता है, जिससे वाहन का संतुलन बिगड़ता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसी स्थिति में ज़रा सी चिंगारी से पूरी बस आग का गोला बन जाती है। यही वजह है कि जैसलमेर, पलवल और हैदराबाद जैसी घटनाओं में यात्री बाहर निकल ही नहीं पाए।
भ्रष्टाचार बना सुरक्षा कवच
परिवहन विभाग और पुलिस की मिलीभगत इस अवैध धंधे की सबसे बड़ी वजह बताई जा रही है।
विभागीय सूत्रों के अनुसार, हर बस की रवानगी से पहले निश्चित “सेटिंग राशि” वसूली जाती है।
यह अवैध कमाई पूरे नेटवर्क को सुरक्षा कवच प्रदान करती है।
यही कारण है कि कागजों में दर्ज कुछ छिटपुट कार्रवाईयों के बाद भी, वही बसें कुछ दिनों में फिर सड़कों पर दौड़ने लगती हैं।
बार-बार हादसे, पर कार्रवाई शून्य
पिछले 10 दिनों में देश में तीन बड़ी बस आग घटनाएँ हो चुकी हैं:
जैसलमेर (राजस्थान) — 27 यात्री जिंदा जले
हैदराबाद (तेलंगाना) — 20 लोगों की मौत
पलवल (हरियाणा) — डबल डेकर बस में आग से हड़कंप
इन दर्दनाक घटनाओं के बावजूद परिवहन विभाग की ओर से कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया।
ऑल इंडिया मोटर एंड गुड्स ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष राजेंद्र कपूर ने कहा —
“बसों में माल ढुलाई पूरी तरह प्रतिबंधित है, लेकिन विभागों की मिलीभगत से पूरे देश में यह हो रहा है। इससे यात्रियों की जान रोज खतरे में पड़ रही है।”
वहीं ऑल इंडिया मोटर ट्रांसपोर्ट कांग्रेस के अध्यक्ष हरीश सब्बरवाल ने कहा —
“टूरिस्ट परमिट वाली बसों में आम सवारियों को ढोना और माल भरना गंभीर अपराध है। इसके लिए सख्त कानून और भ्रष्टाचार-मुक्त व्यवस्था आवश्यक है।”
कानून तो हैं, पर अमल नहीं
भारत में मोटर वाहन अधिनियम के अनुसार, टूरिस्ट बसें केवल समूह यात्राओं या टूर पैकेजों के लिए इस्तेमाल हो सकती हैं।
इसके बावजूद अधिकांश बसें बिना फिटनेस सर्टिफिकेट, बिना सुरक्षा उपकरण और बिना अग्निशमन साधन के सड़कों पर दौड़ रही हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर फिटनेस जांच और परमिट नवीनीकरण सिर्फ कागजों पर क्यों रह गया है?
परिवहन विभाग, आरटीओ, पुलिस और जीएसटी विभाग — चारों एजेंसियाँ इस “धंधे” के अलग-अलग हिस्से से जुड़ी हैं।
इसलिए किसी एक को जिम्मेदार ठहराना आसान नहीं।
प्रशासन की नींद कब खुलेगी?
भीलवाड़ा में पिछले महीने प्रशासन ने कुछ बसों पर कार्रवाई की थी, लेकिन अब वही बसें फिर दौड़ रही हैं।
अधिकारियों का कहना है कि अगर दोबारा ऐसी गतिविधियाँ सामने आती हैं तो विशेष टीम बनाकर जांच की जाएगी।
लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि जब तक फिटनेस, परमिट और माल ढुलाई पर सख्त निगरानी नहीं रखी जाएगी, तब तक ऐसे हादसे दोहराते रहेंगे।
निष्कर्ष: हर सफर पर लटका खतरा
जैसलमेर से लेकर भीलवाड़ा तक एक जैसी तस्वीर है —
बसें यात्रियों और माल का घातक मिश्रण, सुरक्षा के नाम पर शून्य इंतज़ाम और भ्रष्टाचार से उपजी निर्लज्ज व्यवस्था।
देश में यात्रियों की सुरक्षा के लिए कानून तो हैं, पर उन्हें लागू करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है।
जब तक सरकार, विभाग और जनता तीनों मिलकर जिम्मेदारी नहीं निभाएंगे,
तब तक हर सफर पर यही डर बना रहेगा —
कहीं यह सवारी चलती-चलती मौत में न बदल जाए।
