आदर्शो का आचरण आवश्यक है-जिनेन्द्रमुनि मसा
गोगुन्दा श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ कड़िया में जिनेन्द्रमुनि मसा ने कहा कि आदर्शो का कथन,चिंतन और श्रवण काफी अच्छा लगता है,पर याद रखिये केवल कथन चिंतन और श्रवण ही पर्याप्त नही है।पहले स्वयं को सुधारो,स्वयं को आदर्श बनाओ,तब विश्व को आदर्श बना सकोगे।अथिति देवो भव कि भारतीय संस्कृति आज भी अक्षुण्ण है।यह भारतीय संस्कृति की परंपरा है।घर आए मेहमानों को देवता तुल्य समझना चाहिए।उसका स्वागत करना चाहिए।जिस प्रकार देवी देवताओं की पूजा की जाती है उसी प्रकार देवताओ की तरह अतिथि का स्वागत करना चाहिए।क्योंकि अतिथि को देवताओ के सम्मान माना गया गया है।कभी कभी स्वार्थो की सृष्टि रचने के लिए दूसरों की जिंदगी तक को भी कुचल डालता है।क्या उसकी यह मानवता है?यह कहना चाहिए मानवता नही,दानवता है,पशुता है।स्वागत करना योग्य है,लेकिन अपने स्वार्थ के लिए किसी का बलिदान कितना अन्यायपूर्ण है।किसी गरीब के साथ अन्याय होता है तो उस की अनन्त वेदना झंकृत हो उठती है।आज के इस भौतिकवाद की चकाचौंध में मानव मानवता को ही भुला बैठा है।मुनि ने कहा कि हर कोई चाहता है कि लोग हिंसा असत्य और परिग्रह से दूर रहे।एक आदर्श जीवन जिये।उसकी और से वह आंख बंद कर लेता है।संत ने कहा जहा कुरीतियां विधमान है।वहा पर व्यवहार निभाने के नाम पर अवश्य जाता है।सत्य को अपनाने में व्यक्ति गम्भीर नही होता।उसकी कथनी और करनी में फर्क होता है।सम्मान दो,सम्मान मिलेगा।अतिथियों का स्वागत जहा होता है,वह परिवार आदर्श प्रस्तुत कर रहा है।जैन संत ने कहा आज का वर्तमान समय पश्चिमी संस्कृति के अंधानुकरण के चकाचौंध में लिप्त है।उसमे भारतीयता गायब हो चुकी है।मानव की विलासप्रिय ता का एक चित्र जिसमे मानवता के दर्शन नही हो पाते।आज विलास प्रधान साधनों को अधिकाधिक महत्व दिया जा रहा है।जिसमे मानवता मर चुकी है।अपने पराये का भाव मन मे जागृत होने पर घर आये मेहमानों का स्वागत नही करते है।लेकिन जहा संस्कृति कायम है,वहा परम्परा भी अक्षुण्ण बनी रहेगी।मानव की तृष्णा इतनी बढ़ चली है कि सुरसा के मुख की तरह सबकुछ निगलने को तैयार है।